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42. जोती जोत समाना

जो परमात्मा के संत भक्त होते हैं उन्हें तो परमात्मा के दूत ही लेने आते हैं, यमदूत नहीं। एक दिन रविदास जी परमात्मा के सिमरन में जुड़े हुए थे, उनकी आयु बहुत ज्यादा हो चुकी थी, तभी अचानक से परमात्मा ने अपने निराकार रूप से साकार रूप धारण करके भक्त रविदास जी से कहा कि रविदास तेरे और मेरे में प्रेम इतना प्रबल हो गया है कि एक-दूसरे की जूदाई नहीं सही जाती। इसलिए आप कल मेरे बैकुण्ठ धाम में आओ। आप तैयार रहना मेरे निकटवर्तीगण आपको कल लेने आएँगे। भक्त रविदास जी ने श्री गुरू नानक देव जी का कथन “जो तुघु भावै साई भली कार ।। तू सदा सलामति निरंकार ।।“ कह कर सिर झूका दिया और कहा कि आपने जिस कार्य को करने के लिए सँसार में भेजा था वह मैंने आपकी कृपा से पूरा करने का यत्न किया है। सब आपकी मेहर है। परमात्मा भक्त रविदास जी को हुक्म देकर अलोप हो गए। सँगतों को बुलाना: भक्त रविदास जी ने उसी समय पण्डित बृजमोहन और राधेश्याम को बुलाया और आस-पास के सारे सेवकों को पत्र लिखकर भेजे कि जो हमें अन्तिम बार मिलना चाहता है वो दिन चढ़ते तक काशी में पहुँच जाए। कल सुबह सूर्य उदय होने के बाद हम देह त्यागेंगे। पत्र मिलते ही सेवकों और श्रद्धालूओं की भीड़ उमड़ पड़ी। राजा रतन सिँह, चन्द्रप्रताप, राणा साँगा, मीरा बाई, महारानी झालाबाई, राजा नागरमल और अन्य सभी सेवक अपने गुरू के अन्तिम दर्शनों के लिए उपस्थित हुए। भक्त रविदास जी ने अशांत लोगों को कथा सुनाकर शान्त किया। माता भागन देवी जी कहने लगी हे प्राणपति जी मूझे भी अपने साथ ले चलो मैं आपके बिना नहीं रह सकती, जिस प्रकार से मछली पानी के बिना नहीं रह सकती। हे दातार ! मूझे अपने साथ ही ले चलो। भक्त रविदास जी ने भागन देव जी को धीरज बँधाया और सभी आए हुए सेवकों और शिष्यों से परमात्मा का हुक्म मीठा करके मानने की आज्ञा दी। भक्त रविदास जी ने अपने सेवकों को अन्तिम उपदेश देने के लिए राग गउड़ी में बाणी उच्चारण की:

बेगम पुरा सहर को नाउ ॥ दूखु अंदोहु नही तिहि ठाउ ॥
नां तसवीस खिराजु न मालु ॥ खउफु न खता न तरसु जवालु ॥१॥
अब मोहि खूब वतन गह पाई ॥ ऊहां खैरि सदा मेरे भाई ॥१॥ रहाउ ॥
काइमु दाइमु सदा पातिसाही ॥ दोम न सेम एक सो आही ॥
आबादानु सदा मसहूर ॥ ऊहां गनी बसहि मामूर ॥२॥
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै ॥ महरम महल न को अटकावै ॥
कहि रविदास खलास चमारा ॥
जो हम सहरी सु मीतु हमारा ॥३॥२॥ अंग 345

अर्थ: हे संत जनों ! हमारे असली शहर का नाम बे-गम पुरा है, जहाँ पर कोई गम नहीं है। जहाँ पर कोई दुख, चिन्ता, डर या खतरा नहीं है। वहाँ पर किसी भी किस्म की कोई फिक्र नहीं है और ना ही वहाँ पर कोई किसी से खिराज लेता है। वहाँ पर ना एक-दूसरे का खौफ है और ना ही कोई कसूरवार है, ना कोई तरस या दया के काबिल (बीमार, भीखमँगा) है और ना वहाँ पर किसी बात का घाटा या जूल्म है। हे भाई जनों अब मैं बहुत ही सुन्दर स्थान पर चला हूँ यानि मूझे बड़ा अच्छा वतन हाथ लगा है, जहाँ पर हमेशा परमात्मा की मेहर है और सुख ही सुख है। वहाँ पर एक परमात्मा की ही हुकुमत है और वह सदा कायम यानि अटल है, कोई दूसरा, तीसरा उसका सानी शरीक नहीं है, वह केवल एक ही है। वो हमेशा आबाद रहता है, कभी भी नहीं उजड़ता और तमाम सँसार में मशहूर है, वहाँ नाम के धन माल से भरे हुए गनी यानि दौलतमंद बसते हैं और जिसकी जैसे-जैसे मर्जी होती है वह वैसे-वैसे सैर करता है। जितने परमात्मा के मेली हैं वह चाहे जहाँ पर जाएँ उन्हें कोई भी रोकने-टोकने वाला नहीं। दुनियाँ के बन्धनों से छुटा हुआ रविदास चमार कहता है- हे संत जनों ! जो भी हमारी श्रेणी का नाम लेवा मित्र है यानि जो भी परमात्मा का नाम जपता है वो सभी इस सुखों से भरे शहर में हमारे पास आएगा। यानि जो भी इस बे-गम पुरा शहर में आएगा वो हमारा मित्र है।

भक्त रविदास जी का चलाना : इस प्रकार ब्रहम ज्ञान से भरा हुआ उपदेश सँगतों को देकर भक्त रविदास जी ने अन्तिम बार अपने सेवकों को मेहर वाली नजर से देखा और दो घंटे दिन चड़े 28 माघ सुदी पुरनमासी संवत 1575 बिक्रमी यानि सन 1518 वाले दिन सफेद चादर ओढ़कर पलँग पर लेट गए और उनकी जोत परमात्मा की जोत से जा मिली। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी यह सबने देखा। भक्त रविदास जी के अन्तिम सँस्कार की तैयारी का जिम्मा राजा नागरमल ने लिया और उसने अपने बाग में चन्दन की लकड़ियों की चिता बनवाई और चिता पर डालने के लिए भाँति-भाँति की सुगँधी और घी मँगवाया गया। अन्य सेवकों ने बढ़िया वस्त्र भक्त रविदास जी की पवित्र देह को पहनाए। अन्य राजा और रानियों और सेवकों ने गरीबों को खूब दान दिया। इस प्रकार तैयारियाँ करते-करते पिछला पहर हो गया। इस अफसोस में सारा शहर, दुकानें आदि बन्द करके अन्तिम सँस्कार करने के लिए पहुँचा। चन्दन के पट्टे पर भक्त रविदास जी के पवित्र शरीर को गँगा के निरमल जल से स्नान कराया गया। स्नान कराने की सेवा महाराणा साँणा और राजा रतन सिँह ने की। इसके बाद वस्त्र पहनाऐ गए। महारानी झाला, मीराबाई और करमां बाई महिलाओं में शान्ति रखने का उपदेश दे रही थीं। इस प्रकार भक्त रविदास जी का अन्तिम सँस्कार कर दिया गया।

समाधि स्थापित करना: अन्तिम सँस्कार वाले स्थान पर भक्त रविदास जी की समाधि बनाने का फैसला लिया गया और जोती जोत समाने वाले दिन एक मेला लगाने का भी फैसला किया गया। जब तक दुनियाँ कायम रहेगी भक्त रविदास जी का नाम भी अमर रहेगा। सिक्ख कौम में भक्त रविदास जी की बाणी की अन्य गुरूओं की बाणी की तरह से पूजी जाती है।
बोलो श्री रविदास !! दुख दरिद्र का होवै नास !!

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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