40. सिकन्दर लोधी और रविदास जी
रामानँद जी ने जब मूर्ति पूजा त्याग दी और केवल एक परमात्मा के नाम को ही जपने लगे
तो उनके चेले भी वैसा ही करने लगे। यह देखकर ब्राहम्ण बहुत ही ज्यादा जल-भून गए।
इत्तफाक से इसी साल बिक्रमी 1545 यानि सन 1488 को दिल्लीपति सिकन्दर लोधी
हिन्दूस्तान का दौरा करता हुआ काशी आया। ब्राहम्णों और काजियों ने अच्छा समय समझकर
सिकन्दर लोधी के खूब कान भरे और कहा कि रविदास चमार हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म दोनों
के विरूद्ध प्रचार करता है। वह मुगल शासन की तब्दीली भी चाहता है इसलिए हमने अपना
फर्ज जानकर सरकार को चेतावनी दे दी है। अब जो आपकी मर्जी हो सो करो। सिकन्दर लोधी
ने राजा नागरमल को हुक्म देकर भक्त रविदास जी को दरबार में बुलाया। जब भक्त रविदास
जी दरबार में आए तो सभी हिन्दू राजा उनके सम्मान में खड़े हो गए तो बादशाह सिकन्दर
लोधी बड़ा ही हैरान हुआ और सभी राजाओं से इसका कारण पूछने लगा। तो सभी ने एक जुबान
से भक्त रविदास जी की तारीफ की और कहा कि यह तो केवल एक खुदा को जपते है और उसकी
बँदगी करते हैं और अपने शिष्यों को भी यही उपदेश देते हैं। काजी और ब्राहम्ण इनसे
ईर्ष्या करते हैं इसलिए आपको इन लोगों ने भक्त रविदास जी के खिलाफ भड़काया है। भक्त
रविदास जी बागी नहीं हैं। आप भी इसने उपदेश लेकर अपना जीवन सफल करो।
सिकन्दर लोधी को उपदेश
: सिकन्दर ने भक्त रविदास जी को अपने सामने एक सुन्दर आसन पर
बिठाया और उनसे वार्त्तालाप करने लगा। सिकन्दर लोधी ने कहा– भक्त जी ! इस मनुष्य की
घाड़त किस प्रकार गढ़ी गई है। मेरा मन इस घाड़त के रूप में फँसकर भ्रम में भूला फिरता
है और धन एकत्रित करने के लिए लालसा बढ़ रही है। यह ठीक है कि यह धन अल्लाह की दरगह
में नहीं जाना तो मूझे कोई ऐसा उपाय बाताओ जिससे में दोजक (नर्क) की आग से बच जाऊँ
? रविदास जी ने सिकन्दर लोधी की नम्रता भरी विनती सुनकर राग सोरठि में यह बाणी
उच्चारण की:
जल की भीति पवन का थ्मभा रक्त बुंद का गारा ॥
हाड मास नाड़ीं को पिंजरु पंखी बसै बिचारा ॥१॥
प्रानी किआ मेरा किआ तेरा ॥
जैसे तरवर पंखि बसेरा ॥१॥ रहाउ ॥
राखहु कंध उसारहु नीवां ॥
साढे तीनि हाथ तेरी सीवां ॥२॥
बंके बाल पाग सिरि डेरी ॥
इहु तनु होइगो भसम की ढेरी ॥३॥
ऊचे मंदर सुंदर नारी ॥
राम नाम बिनु बाजी हारी ॥४॥
मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जनमु हमारा ॥
तुम सरनागति राजा राम चंद कहि रविदास चमारा ॥५॥६॥ अंग 659
अर्थ: "(हे पातशाह ! शरीर, पानी की दीवार का कोठा है और पवन (श्वाँस)
के खम्बे के आसरे खड़ा है। खुन के गारे से इसकी लिपाई हुई है। यह हड्डियों, नाड़ियों
और मास का पिँजर बना हुआ है और इसमें जीव रूपी पँछी रहता है। हे करूणापति ! सँसार
में तेरी-मेरी क्या चीज है यानि जिस प्रकार रात के समय एक वृक्ष के नीचे एक पँछी
आकर रहता है और सुबह होते ही उड़कर चला जाता है। इस तरह के झूठे शरीर के लिए पाप
कर-करके महलों की दीवारें और ऊँचे महल बनाने के लिए गहरी नीवें खुदवाता है और
बड़े-बड़े किले बनाता है और अन्त में तो तेरे काम तो केवल तीन या साढ़े तीन हाथ जमीन
ही आती है वो भी यहीं रह जाती है केवल अन्तिम सँस्कार के समय ही काम आती है। जिस
सिर को सुन्दर-सुन्दर तेल लगाकर बाल सँवारता है और सुन्दर पटियाँ अपने अहँकार वश
रखकर अकड़ता फिरता है और टेढ़ियाँ नोकदार पगड़ियाँ बाँधता है, वह सीस भस्म की ढेरी हो
जाना है। आकाश को छूते हूए महल और हुस्न से भरी हुई स्त्रियाँ देखकर भूल गया है,
अफसोस है कि परमात्मा के नाम सिमरन के बगैर मनुष्य जन्म की जीती हुई बाजी हार गया
है। हे परमात्मा ! मेरी जाति भी कमीनी है और कुल भी कमीना है और मेरा जन्म भी नीच
घर का है, परन्तु रविदास आपकी शरण में आया है। हे जगत की प्रजा के मालिक ! लाज रख
लो। आपका नाम जपने से सब डर, भ्रम और छूत के भूत भाग गए हैं।)" ज्ञान के भरा हुआ
उपदेश सुनकर सिकन्दर लोधी भक्त रविदास जी के चरणों में गिर पड़ा और सेवा करने की
इच्छा जाहिर की: भक्त रविदास जी ने कहा: बादशाह ! हमें किसी चीज की आवश्यकता नहीं
है। आप तो अपनी प्रजा का ध्यान रखो और गरीबों और जीव मात्र की सेवा करो। आपने जो
नजरानें राजाओं से लिए है, वह वापिस करो। इस समय दुनियाँ में अकाल आया हुआ है। आप
लगान माफ करो और गरीबों को पुण्य-दान करो। आपका कल्याण होगा।