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39. गुरू द्वारा शिष्य की परख करनी

जब भक्त रविदास जी वापिस काशी पहुँचे तो उनके गुरू भाईयों ने उनका बहुत ही शानदार स्वागत किया जिसमें: 1. आसा नँद जी, 2. भक्त कबीर जी, 3. भक्त पीपा जी. 4. सुरसरा नँद जी, 5. सुखा नँद जी, 6. भवानँद जी, 7. भक्त धन्ना जी, 8. भक्त सैन जी, 9. महानँद जी, 10. परमानँद जी, 11. श्री नँद जी। कुछ ब्राहम्ण मिलकर स्वामी रामानँद जी के पास गए और कहने लगे कि स्वामी रामानँद जी ! आपके चेले भक्त रविदास जी ने कंठियाँ, जनेऊ आदि उतारकर और ठाकुर की मूर्ति को पानी में बहा दिया है वह आप भी मूर्ति पूजा नहीं करता और अपने चेले और शिष्यों को भी ऐसा करने के रोकता है। जो कोई भी एक बार भक्त रविदास जी का उपदेश सुन लेता है वो मन्दिर, मस्जिद में कभी भी नहीं जाता। आप भक्त रविदास जी को बुलाकर इस बात का कारण पूछें। रामानँद जी का भक्त रविदास जी के घर पर जाना : स्वामी रामानँद जी ने अपने शिष्य भक्त रविदास जी की परख करने के लिए ठाकुर की पूजा का सामान तैयार करवाकर साथ ले लिया और चेलों व ब्राहम्णों समेत भक्त रविदास जी के घर पर आ गए और ठाकुर पूजा के लिए मन्दिर की तरफ जाने के लिए भक्त रविदास जी को आवाज दी। भक्त रविदास जी गुरू जी की आवाज सुनकर बाहर आए और उनके चरणों में गिर पड़े। जब भक्त रविदास जी ने पूजा का सामान देखा तो राग गूजरी में बाणी गायन की:

दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ ॥
फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ ॥१॥
माई गोबिंद पूजा कहा लै चरावउ ॥
अवरु न फूलु अनूपु न पावउ ॥१॥ रहाउ ॥
मैलागर बेर्हे है भुइअंगा ॥
बिखु अम्रितु बसहि इक संगा ॥२॥
धूप दीप नईबेदहि बासा ॥
कैसे पूज करहि तेरी दासा ॥३॥
तनु मनु अरपउ पूज चरावउ ॥
गुर परसादि निरंजनु पावउ ॥४॥
पूजा अरचा आहि न तोरी ॥
कहि रविदास कवन गति मोरी ॥५॥१॥ अंग 525

अर्थ: "(हे गुरूदेव ! दास जी विनती सुनो ! बछड़े ने गाय के थनों को मुँह में लेकर दुध को जूठा कर दिया है। फूल को भौरों ने सुँघकर और पानी को मछली ने बिगाड़ दिया है। ठाकुर के लिए साफ और सुच्ची चीजें कहाँ से लेकर चढ़ाऊँ। चन्दन के वृक्ष को साँपों ने खराब कर दिया है, अगर अमृत कहो तो समुद्र में अमृत और जहर एक ही जगह इक्टठे होकर बिगड़े हुए हैं। धूप धूखाँनी और जोत जलानी सुगँघियाँ आदि सब ही बिगड़ी हुई हैं। इसलिए जूठी चीजों से दास तेरी पूजा किस प्रकार से करे। मैंने अपना तन-मन अर्पित करके पूजा के लिए चड़ा दिया है। हे गुरूदेव ! आपकी कृपा से माया से रहित परमात्मा को पा लिया है और अब पूजा की जरूरत नहीं है। तन-मन अर्पित करन के अलावा और किसी भी प्रकार से तेरी पूजा नहीं हो सकती यानि उसका नाम जपना ही उसकी पूजा है। हे परमात्मा ! रविदास आपकी शरण में गिरा है, अब आप ही बताओ कि मेरी गती होने का इससे अच्छा साधन और कौनसा है। इन फोकट कर्मों (थाल सजाकर मूर्ति की पूजा करना, भोग लगाना) से मैं आपको किस प्रकार से खुश कर सकता हूँ।)" श्री रविदास जी की इस प्रकार की आत्मिक दशा देखकर रामानँद जी हैरान हो गए और प्यार भरी गोष्टि करके अपने डेरे पर वापिस आ गए और ठाकुरों यानि मूर्ति की पूजा करना बन्द कर दिया। जब ब्राहम्णों को इस बात का पता चला तो उन्होंने हल्ला मचा दिया कि देखो, चेले रविदास को गुरू रामानँद के पीछे होना था लेकिन यहाँ पर तो गुरू जी चेले के पीछे है। रामानँद जी ने तो वेद रहित कर्मकाण्ड करने त्याग दिए हैं और मन्दिरों में जाना भी त्याग दिया है। पण्डितों का यह शोरशराबा सुनकर रामानँद जी ने एक राग बसंत में बाणी उच्चारण की:

कत जाईऐ रे घर लागो रंगु ॥
मेरा चितु न चलै मनु भइओ पंगु ॥१॥ रहाउ ॥
एक दिवस मन भई उमंग ॥ घसि चंदन चोआ बहु सुगंध ॥
पूजन चाली ब्रह्म ठाइ ॥
सो ब्रह्मु बताइओ गुर मन ही माहि ॥१॥
जहा जाईऐ तह जल पखान ॥
तू पूरि रहिओ है सभ समान ॥
बेद पुरान सभ देखे जोइ ॥
ऊहां तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ ॥२॥
सतिगुर मै बलिहारी तोर ॥
जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर ॥
रामानंद सुआमी रमत ब्रह्म ॥
गुर का सबदु काटै कोटि करम ॥३॥१॥ अंग 1195

अर्थ: "(हे भाई जनों ! परमात्मा को बाहर ढूँढने क्यों जाएँ जबकि वह तो शरीर में ही दिल में ही रह रहा है यानि कि मन में ही रँग लगा हुआ है। मेरा चित अब चल नहीं सकता क्योंकि मन रूपी कर्म पिंगल हो गए हैं। एक दिन मेरे मन में एक इच्छा पैदा हुई और मैंने चन्दन रगड़कर माथे पर तिलक लगाकर सुगँधी लेकर ठाकुर के द्वारे पर ठाकुर पूजन के लिए चला परन्तु सतगुरू ने कृपा कर दी और ठाकुर मन में ही मिल गया। जैसे भी जानो पानी और पदार्थों आदि में तूँ समा रहा है, तेरी कुदरत दोनों में एक जैसा खेल कर रही है। सारे वेद पुरान आदि पढ़कर विचार किया है, परन्तु परमात्मा को बाहर (जँगलों में) ढूँढने के लिए तो जाएँ अगर वो दिल में ना हो। मैं सतगुरू पर कुर्बान जाता हूँ, जिसने मेरे सारे भ्रम काट दिए हैं। रामानँद जी अब केवल एक ईश्वर को सिमरते हैं, क्योंकि गुरू के शब्द ने करोड़ों कूकर्म दूर कर दिए हैं यानि करोड़ों जन्म के किलविख काटकर परमात्मा के नाम से जोड़ दिया है।)"

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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