38. रविदास जी का गाजीपुर आना
इस प्रकार भक्त रविदास जी परमात्मा के मिलन का रास्ता बताकर वापिस काशी को जाने के
लिए तैयार हुए। तभी उनके दर्शनों की चाह में खिँचा हुआ राजा चन्द्रप्रताप गाजीपुर
से आ गया और चरण वन्दना करते हुए उसने अपने महलों में यज्ञ करवाने की विनती की। राजा
की प्रेम भरी विनती सुनकर भक्त रविदास जी गाजीपुर जाने के लिए प्रस्थान करने लगे तो
राणा साँगा ने विनती की कि आप रथ पर जाएँ तो भक्त रविदास जी ने कहा कि हम पैदल ही
जाएँगे। इस प्रकार भक्त रविदास जी ने चन्द्रप्रताप की राजधानी गाजीपुर को भाग्य
लगाए। मीरा बाई और करमां बाई ने वापिस लौटना नहीं माना। राजा चन्द्रप्रताप ने बड़े
चाव से सँगतों का निवास अपने महल में करवाया। भोजन उपरान्त भक्त रविदास जी ने कथा
करनी प्रारम्भ की। कथा सुनने के लिए पुरा शहर ही उमड़ पड़ा। राजा चन्द्रप्रताप चँवर
करने लगा। जब पण्डाल पूरी तरह से भर गया तो भक्त रविदास जी ने राग धनासरी में बाणी
गायन की:
चित सिमरनु करउ नैन अविलोकनो स्रवन बानी सुजसु पूरि राखउ ॥
मनु सु मधुकरु करउ चरन हिरदे धरउ रसन अमृत राम नाम भाखउ ॥१॥
मेरी प्रीति गोबिंद सिउ जिनि घटै ॥
मै तउ मोलि महगी लई जीअ सटै ॥१॥ रहाउ ॥
साधसंगति बिना भाउ नही ऊपजै भाव बिनु भगति नही होइ तेरी ॥
कहै रविदासु इक बेनती हरि सिउ पैज राखहु राजा राम मेरी ॥२॥२॥
अंग 694
अर्थ: "(हे परमात्मा ! मन से तेरा सिमरन करता हूँ। नेत्रों के
द्वारा तुझे सारे ब्रहमण्डों में रचा बसा हुआ देखता हूँ और तेरे संतों सेवकों के
दर्शन करके तृप्त होता हूँ और कानों में तेरी अमृतबाणी जो जगत में जस फैलाने वाली
है, सुनता हूँ यानि कानों से तेरे प्यारों के कौतक और उपदेश सुनता हूँ। मन में तेरे
शहद जैसे नाम से जुड़ता हूँ यानि श्रेष्ठ भौराँ बनकर तेरे नाम रूपी फलों पर विचरता
हूँ। तेरे चरण कमल दिल में धारण करता हूँ। रसना यानि जीभ से तेरा अमृतमयी नाम जपता
हूँ। मेरी परमात्मा के साथ गहरी और गूढ़ी प्रीत है और कभी भी कम नहीं होती क्योंकि
मैंने दिल के बदले महँगे मूल्य पर ली हुई है। संतों की सँगत से अगर प्रेम-प्यार पैदा
नहीं होता तो प्रेम के बिना भक्ति नहीं होती। रविदास जी परमात्मा से प्रार्थना करते
हैं कि एक रूप होकर हे राम ! मेरी लाज रखो यानि कि यह जीव तेरी प्रजा है और परमात्मा
आप राजा हो, पातशाह हो। इसलिए राजा को प्रजा की सम्भाल का फिक्र होता है। बस हमारी
यही इच्छा है और यही विनती है कि हे परमात्मा ! हमारी लाज रखो।)" इस प्रकार कई दिनों
तक यज्ञ होता रहा और राजा चन्द्रप्रताप ने बड़-चड़कर दान पुण्य किया। जिन साधू संतों
को पत्र देकर बुलाया गया था उन्हें दान दिया गया और लँगर के लिए भक्त रविदस जी को
बेअंत माया दी गई। जैसे जैसे लोग भक्त रविदास जी को माया अर्पित करते, वैसे ही भक्त
रविदास जी उस माया का लँगर लगवा देते। अब तो काशी से पत्र आने लगे कि आप अब तो
वापिस आकर दर्शन दें। परिवार और अन्य लोग तो उन्हें लेने गाजीपुर ही आ गए थे। इस
प्रकार से भक्त रविदास जी वापिस काशी की तरफ चल पड़े।