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37. रविदास जी का उदयपुर जाना

राणा साँगा ने भक्त रविदास जी से उदयपुर आने की विनती की, क्योंकि वह अपने परिवार समेत शिष्य बनना चाहता था। इस प्रकार भक्त रविदास जी राजा रतन सिँघ, चन्द्रभाग और मीरा समेत मेड़ से उदयपुर को चल पड़े। मन्जिल-मन्जिल राम नाम का सिमरन करते हुए भक्त रविदास जी उदयपुर पहुँचे। राण साँगा ने भक्त रविदास जी का निवास अपने महलों में करवाया। महाराणा साँगा का प्रेम देखकर सारा शहर ही भक्त रविदास जी के दर्शन करने के लिए उमड़ पड़ा। राणा साँगा ने लँगर के लिए बहुमुल्य पदार्थ और धन आदि दान किया। राणा साँगा के सारे परिवार ने भक्त रविदास जी से नाम दान लिया और शिष्य बने। दरबार में आए हुए सभी लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण हुईं। भक्त रविदास जी ने नाम दात देकर लोगों से फोकट कर्म और देवी-देवताओं की पूजा बन्द करवाई और केवल राम नाम जपने पर बल दिया। जिस कादर (परमात्मा) ने कुदरत के साथ तमाम कायनात को बनाया, उस कादर को जपने के लिए ब्रहमज्ञान प्रदान किया। भक्त रविदास जी ने कहा कि मूर्ख जीव उस रचनाहार परमात्मा को छोड़कर, सूर्य, चन्द्रमाँ, तारों, पशूओं सर्पों और पिपल आदि को पूजता फिरता है। परमात्मा के प्यारे तो केवल परमात्मा का ही नाम जपते हैं और इस आलौकिक आनँद में माया से बहुत ऊपर रहते हैं यानि कि माया के साथ रहते हुए भी वह माया से दूर रहते हैं। परमात्मा के सम्पूर्ण भक्त के सामने अगर सारी धरती हीरों की बना दी जाए तो भी वो इन्हें कँकर और पत्थर ही समझकर उस पर इस प्रकार से निकल जाते हैं, जिस प्रकार से हंस जल पर से तैरकर निकल जाता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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