36. राणा साँगा ने शिष्य बनना
राणा साँगा अपने किए पर शर्मिन्दा था उसने माफी माँगी और हाथ जोड़कर विनती की– हे
दातार ! हम भूल में आज तक आपके दुशमन बने रहे। आपका पवित्र उपदेश सुनकर मन के सारे
भ्रम दूर हो गए। हमारी बहू रानी मीरा धन्य है, जिसके कारण हम मूर्खों और पापियों को
भी आत्मदान की दात मिल गई है। इसलिए गुरूदेव आप किरपा करके हमें भी अपनी चरणी लगाकर
मुक्त कर दो। हमारे मन के मनोरथ आप जान ही रहे हो। हे गरीब निवाज ! हमारा अहँकार
दूर हो जाए और केवल एक राम का नाम हमारे मन में भी दृढ़ कर दो। "महाराणा साँगा" की
प्रेम और नम्रता की विनय सुनकर रविदास जी ने "राग सोरठि" में बाणी का उच्चारण किया
जिसमें परमात्मा के नाम की विशेषता प्रकट की है और जीव को नाम जपने की चाह लगाई है:
सुख सागरु सुरतर चिंतामनि कामधेनु बसि जा के ॥
चारि पदार्थ असट दसा सिधि नव निधि कर तल ता के ॥१॥
हरि हरि हरि न जपहि रसना ॥
अवर सभ तिआगि बचन रचना ॥१॥ रहाउ ॥
नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अखर मांही ॥
बिआस बिचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही ॥२॥
सहज समाधि उपाधि रहत फुनि बडै भागि लिव लागी ॥
कहि रविदास प्रगासु रिदै धरि जनम मरन भै भागी ॥३॥४॥ अंग 658
अर्थ: "(सुखों का सागर, कलप वृक्ष, चिंतामणी, कामधेन गाय जिसके
वश में हैं। चार पदारथ अठारह सिद्धियाँ नौ निधियाँ जिसकी हाथ की तली पर हैं। हे भाई
जनो ! उस हर स्थान पर बसने वाले और सूखे को हरा करने वाले हरि के नाम को रसना के
साथ क्यों नहीं जपते। सँसार के और सारे मत छोड़कर केवल एक परमात्मा के नाम के साथ रच
जाओ। श्री व्यास मुनी जी ने वेद, शास्त्र और पुरान आदि कि विधियाँ चौंतीस अक्षरों
में कथन की हैं पर सबको विचारने के बाद पता लगता है कि राम नाम के तुल्य सँसार की
कोई वस्तु नहीं है। उपाधियों से रहित होकर तो बड़े भाग्यशाली की ही सहज समाधि लगती
है। रविदास जी कहते हैं कि जब परमात्मा की नूरी जोत का प्रकाश दिल में होता है तो
जन्म-मरण के डर दूर हो जाते हैं।)"