35. सिर काटने की योजना
मीरा का भाई चन्द्रभाग मेड़ नगर से उदयपुर पहुँचा और राणा साँगा को सलाह दी कि
रविदास हमारे शहर में आ रहा है और राजा महाराजा उसके चेले बन रहे हैं। आप मेरे साथ
मेड़ नगर चलो और सँगत में बैठे, रविदास और मीरा के सिर कलम किए जाएँ। अगर वो मारे गए
तो निन्दा से बच जाऐंगे और अगर यह वार भी खाली चला गया तो चरणों में गिरकर शिष्य बन
जाऐंगे। राणा साँगा को यह बात अच्छी लगी। वह अपने निकटवर्तियों को साथ लेकर
चन्द्रभाग समेत उदयपुर से मेड़ पहुँचा। रविदास जी का मेड़ पहुँचना : रविदास जी काशी
से मेड़, हजारों पापियों को तारते हुए पहुँचे। सेवकों ने भक्त रविदास जी के लिए
बहुत ही सुन्दर सिँहासन सजाया हुआ था। बड़े ही उत्साह से तमाम सेवक एकत्रित होकर
दर्शनों को आए। यहाँ पर लँगर भी शुरू हो गया। इस प्रकार से रात हो गई और भक्त
रविदास जी ने आराम किया। दूसरे दिन सतसंग की तैयारी हुई। भक्त रविदास जी की सँगत
करने के लिए अनेकों श्रद्धालू उपस्थित हुए। इनमें ही मीरा का भाई चन्द्रभाग और ससुर
राणा साँगा भी उपस्थित हुए और अपने खुफिया सिपाहियों के साथ अपने कपड़ों में हथियार
छिपाकर बैठ गए। जब पण्डाल खचाखच भर गया तो भक्त रविदास जी भी बैठ गए। भक्त रविदास
जी ने राग मलार में बाणी उच्चारण की:
मिलत पिआरो प्रान नाथु कवन भगति ते ॥
साधसंगति पाई परम गते ॥ रहाउ ॥
मैले कपरे कहा लउ धोवउ ॥
आवैगी नीद कहा लगु सोवउ ॥१॥
जोई जोई जोरिओ सोई सोई फाटिओ ॥
झूठै बनजि उठि ही गई हाटिओ ॥२॥
कहु रविदास भइओ जब लेखो ॥
जोई जोई कीनो सोई सोई देखिओ ॥३॥१॥३॥ अंग 1293
अर्थ: "(शिष्य अपने गुरू से विनती करता है कि प्राणों का मालिक
परमात्मा कैसी भक्ति करके मिलता है ? गुरूदेव उत्तर देते हैं कि साधसँगत करके
मनुष्य को परमगति प्राप्त होती है। जिस तत्व वस्तु को योगी उम्र भर भी नहीं प्राप्त
कर सकते उस अवस्था को सतसँगत में एक घड़ी के बैठने से ही पहुँच जाते हैं। हे गुरूदेव
! मेरा कपड़ा पाप की गन्दगी से मैला हो गया है। इसको कहाँ तक धोऊँ और अज्ञान की नींद
ने जोर पकड़ा हुआ है मैं कब तक सोया रहुँगा। इस गन्दे कपड़े को जहाँ-जहाँ से सीया है,
वहाँ-वहाँ से फट गया है और झूठे व्यापार के हाट समेत उजड़ गया है। श्री रविदास जी
कहते हैं– हे भाई जनों ! यहाँ पर तो मनुष्य छिप-छिपकर पाप कमाता रहता है। परन्तु
चित्रगुप्त और धर्मराज ने जब अदालत में कर्मों का लेखा किया तो जो-जो मनुष्यों ने
अच्छे-बूरे कार्य किए हैं उसको सामने देखेगा और शर्मिन्दा होगा। उस अदालत में खड़े
लोग उसको लानत देंगे।)"
चन्द्रभाग ने चरणों में गिर पड़ना : इस प्रकार के ब्रहम उपदेश
सुनकर मीरा जी के भाई चन्द्रभाग की बुद्धि ने पलटा खाया और भक्त रविदास जी से विनती
करने लगा– हे गुरूदेव ! आपके उपदेश सुनकर मेरे अहँकारी मन को बहुत ही शान्ति
प्राप्त हुई है। मैं अपने कपड़ों में कटार छिपाकर लाया था, अपनी बहिन मीरा और आपका
सिर काटने के लिए। मूर्ख लोगों ने आपकी निँदा कर-करके मूझे आग-बबुला किया हुआ था।
परन्तु आपके दर्शनों और उपदेशों ने तो मेरी कायाकल्प ही कर दी है। हे प्राणनाथ !
कृपा करके एक शबद और सुनाओ ताकि मेरे मन की सारी मैल कट जाए। हमारे कुल के बड़े ऊँचें
भाग्य हैं जो मीरा के चरणों के सदके हम भी तर जाऐंगे। चन्द्रभाग की विनती सुनकर
भक्त रविदास जी ने एक और शब्द राग सोरठि में उच्चारण किया:
दुलभ जनमु पुंन फल पाइओ बिरथा जात अबिबेकै ॥
राजे इंद्र समसरि ग्रिह आसन बिनु हरि भगति कहहु किह लेखै ॥१॥
न बीचारिओ राजा राम को रसु ॥
जिह रस अन रस बीसरि जाही ॥१॥ रहाउ ॥
जानि अजान भए हम बावर सोच असोच दिवस जाही ॥
इंद्री सबल निबल बिबेक बुधि परमारथ परवेस नही ॥२॥
कहीअत आन अचरीअत अन कछु समझ न परै अपर माइआ ॥
कहि रविदास उदास दास मति परहरि कोपु करहु जीअ दइआ ॥३॥३॥ अंग 658
अर्थ: "(हे राजन ! मनुष्य को अमोलक जन्म पिछले पुण्य फलों के
कारण मिलता है। परन्तु विचार के बिना ऐसे ही निकला जा रहा है। अगर स्वर्गपति राजा
इन्द्र के समान बादशाही मिल जाए, सुन्दर किले और महल भी बन जाएँ, तो भी परमात्मा की
भक्ति के बिना किसी लेखे में नही हैं। दो जहान के पातशाह का अमृत रूपी रस नहीं पिया
यानि कि उसका नाम नहीं जपा, जिस रस के पीने के बाद दुनियावी रस पीछे छूट जाते हैं
यानि फीके लगते हैं। सारा दिन बिना सोच-विचार के ही निकल जाता है, क्योंकि इन्द्रियाँ
बहुत ही ताकतवर और शक्तिशाली हैं और हम कमजोर हैं। इसलिए विचार में हमारे मन का
प्रवेश नहीं होता। जीव करते कुछ ओर हैं और कहते कुछ ओर हैं। परमात्मा की अपार और
बेअंत माया समझ में नहीं आती। रविदास जी सँसार के विषयों से उदास होकर दासों और
सेवकों वाला मन बनाकर रहते हैं। हे परमात्मा ! क्रोधवान होना छोड़ दो और अपने नीच
जीव पर दया दृष्टि करो। ताकि तेरी सेवा और सिमरन में लगकर अमोलक जन्म की बाजी को
जीत सकें। रविदास जी कहते हैं कि हे भाई ! उदास न हो। अपनी मत को दास भाव में ढालकर
गरीबों पर जुल्म करने छोड़कर हमेशा दया किया करो।)" यह उपदेश सुनकर राजा रतन सिँह का
सारा परिवार उनसे नाम दान लेकर शिष्य बन गया।