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32. मीराबाई और करमांबाई

रियासत उदयपुर में महाराणा साँगा जी की बहू रानी मीराबाई श्री कृष्ण जी के नाम से बहुत प्यार करती थी। हर वक्त गीता का पाठ करती और उनकी मूर्तियों का ध्यान मन में धारण करती थी। इसकी शादी के कुछ साल बाद ही इसके पति गिरधर की मृत्यु हो गई और मीरा बाल विधवा हो गई। इसके अभी कोई बच्चा नहीं हुआ था। अब इसका मन महात्मा बुद्ध की तरह और भी उचाट होकर दर्शन के प्यार में भीग गया। यह अपने मन में दिन-रात यही सोचने लगी कि कोई ऐसा महात्मा मिल जाए जो इसे श्री कृष्ण जी के दर्शन करवा दे। मीरा पढ़ी-लिखी और समझदार देवी थी। इसने अपनी दासी करमांबाई को साथ लेकर भगवा भेष धारण करके तीर्थ यात्रा का कार्यक्रम बनाया। मीरा के पिता सरदार रतन सिँह ने अपनी पुत्री का मन लगाने के लिए अच्छे-अच्छे धार्मिक ग्रँथ लेकर दिए और रास्ते का खर्च और सेवक भी साथ भेजे। मीरा ने कई विख्यात तीर्थों की यात्रा की और अनेक अखाड़ों के साधूओं से सवाल-जवाब किए परन्तु उसकी वेदना कहीं भी नहीं बूझी। जो भी साधू मिलता वो अपने मत की शोभा और दूसरे मत की निन्दा करता। ईश्वर का भक्त तो वो होता है जो अपने आपको सबसे मँदा जानता है और किसी की भी निन्दा नहीं करता। इस प्रकार मीरा यात्रा समाप्त करके घर पर आ गई, परन्तु सम्पूर्ण गुरू कहीं भी नहीं मिला। एक दिन मीरा को एक साधू महात्मा अपने मायके में मिला। मीरा ने अपने मन की हालत महात्मा के आगे ब्यान की। उस महात्मा ने मीरा को स्वामी रामानन्द जी के दर्शन करने की सलाह दी। मीरा बाई दूसरे दिन ही करमां को साथ लेकर कसोड़ से काशी पहुँची और स्वामी रामानँद जी के डेरे की तरफ चलना शुरू किया। रास्ते में कई लोगों ने उसे बताया कि वह तो ठाकुर की पूजा करते है, यानि मुर्ति को पूजते हैं, परन्तु हैं पूरे, जो बोलते है, सच हो जाता है। मीरा ने सोचा कि जो आप पत्थरों की पूजा करता है, वह मूझे क्या तारेगा। ज्ञानवान तो मूर्ति को पूजना ही नहीं चाहता। मैंने ऐसे साधू के दर्शन नहीं करने जो बूत की पूजा करता हो। मूझे ऐसे महात्मा का पता बताओ जो केवल और केवल परमात्मा का नाम सिमरन करता हो। मैं चाहती हूँ कि मुझे ऐसा गुरू मिले जो तत्काल ही परमात्मा के चरणों से जोड़ दे।

भक्त रविदास जी की शरण में : कहते हैं कि परमात्मा की कृपा हो तो ही सम्पूर्ण गुरू मिलता है। मीरा जी को कुछ भक्त ऐसे मिल गए जो कि भक्त रविदास जी से नाम दान लेकर तृप्त हुए थे। उन्होंने मीरा को बताया कि रविदास जी काशी में ही रहते हैं वो जाति से चमार हैं परन्तु सम्पूर्ण हैं उनमें और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। वह गृहस्थी में रहते हुए भी माया से दूर रहते हैं। वह निरलेप और निरमोह रहते हैं। इसलिए हे देवी ! आप उनकी शरण में जाओ। मीरा देवी, करमां और अपने जत्थे के साथ भक्त रविदास जी के डेरे पर चल दीं। जब उन्होंने भक्त रविदास जी के दर्शन किए तो शरीर का रोम-रोम तृप्त हो गया और मन जो भटक रहा था वह एकदम से शान्त हो गया। मन में एक जगमग सी जोत जल उठी। जो शान्ति पूरे हिन्दुस्तान के तीर्थों की यात्रा करने के बाद भी नहीं मिली वह मीरा को आज भक्त रविदास जी के दर्शन करने से प्राप्त हो गई। मीरा गले में पल्ला डालकर विनती करने लगी– हे प्राणनाथ गुरूदेव ! मैं तमाम साधु संतों और महात्माओं को टटोल चूकी हूँ, परन्तु मेरा दुख किसी ने नहीं काटा, पर आपके दर्शनों ने मन को धीरज प्रदान किया है। मूझे जन्म-मरण के चक्कर से डर लगता है। इसलिए मूझे अपनी चरणी लगाओ और नाम की पवित्र दात देकर मूझ दुखियारन के दुख दरिद्र दूर करो। मैं परमात्मा जी के दर्शन की चाह में दिवानी फिरती हूँ, परन्तु दुनियाँ के लोग मूझे पागल जानकर मजाक बनाते हैं और ताने मारते हैं। इसलिए मैं सँसार से उदास होकर तुम्हारे दर पर आई हूँ। माता-पिता, ससुराल वाले और रिशतेदार मूझे अभागन जानकर माथे पर बल डाल लेते हैं। हे गुरूदेव ! आप मेरे अन्धेरे मन में प्रकाश करो ताकि अपने आप ही समझ आ जाए। मीरा जी की प्रेममय और विनम्र विनती सुनकर भक्त रविदास जी के मन में बड़ी दया आई और उन्होंने सोचा कि इस सँसार में ऐसी देवी भी है जो केवल परमात्मा के दर्शनों से ही प्यार करती है। इसका मन शीशे की तरह अन्दर से निर्मल है। भक्त रविदास जी ने मीरा जी को ब्रहम ज्ञान का उपदेश दिया और राग आसा में बाणी उच्चारण की:

कहा भइओ जउ तनु भइओ छिनु छिनु ॥
प्रेमु जाइ तउ डरपै तेरो जनु ॥१॥
तुझहि चरन अरबिंद भवन मनु ॥
पान करत पाइओ पाइओ रामईआ धनु ॥१॥ रहाउ ॥
स्मपति बिपति पटल माइआ धनु ॥
ता महि मगन होत न तेरो जनु ॥२॥
प्रेम की जेवरी बाधिओ तेरो जन ॥
कहि रविदास छूटिबो कवन गुन ॥३॥४॥ अंग 486

अर्थ: "(क्या हुआ जो शरीर टुकड़े-टुकड़े हो गया। तो कोई दुख नहीं है, परमात्मा के प्यारों को डर तब लगता है, जब उस परमात्मा से बिछोड़ा पड़ जाए यानि प्यार अन्दर से चला जाए तो तेरे दासों को डर लगता है। हे परमात्मा ! तेरे चरण कवंल के फुल में, मेरे मन ने भौरें की तरह घर बनाया है और नाम रूपी रस पीते हुए सिमरन की अथाह दौलत पा ली है। धन पदार्थ और विपदा दोनों ही माया के पर्दे हैं। इसलिए इस धन में हरि के दास नहीं उलझते। हे माधव ! तेरे दास ने तुझे प्यार के रस्से में बाँध लिया है। रविदास जी कहते हैं, हे परमात्मा ! अब तूँ विचार कर ले कि कौन से ढँग से छूटेगा।)"

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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