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31. ठाकुर नदी में फैंक देना

ब्राहम्ण अब अपनी अर्जी लेकर राजा नागरमल के दरबार में पहुँच गए और लगे भक्त रविदास जी की बुराई करने और कहने लगे– हे महाराज ! उस नीच चमार ने हमारे धर्म का उपहास किया है, वह जनेऊ धारण करता है और तिलक भी लगाता है और ठाकुर की पूजा भी करता है। राजा ने रविदास जी को बुलाया और उनसे कहा– भक्त जी आप जब मूर्ति पूजा को पाखण्ड कहते हो तो आप हमारी बात मानकर जनेऊ तिलक और मूर्ति का त्याग कर दो, क्योंकि यह मसला अब ये लोग बढाते ही जा रहे है, आप तो स्वँय जी परमात्मा का रूप हो और आप तो नाम जपते हो और परमात्मा आपकी एक आवाज पर दौड़ा चला आता है। आप पर इन चीजों का त्याग करने से कुछ असर नहीं पड़ेगा, परन्तु इन मूर्ख ब्राहम्णों के साथ यह झगड़ा भी खत्म हो जाएगा। अब जब सभी सेवकों ने इस प्रकार की विनम्र प्रार्थना की तो भक्त जी ने तिलक पौंछ दिया, जनेऊ उतार दिया और ठाकुर की मूर्ति को नदी में बहा दिया और वैराग्य में आकर राग भैरउ में बाणी उच्चारण की:

फल कारन फूली बनराइ ॥
फलु लागा तब फूलु बिलाइ ॥
गिआनै कारन करम अभिआसु ॥
गिआनु भइआ तह करमह नासु ॥३॥
घ्रित कारन दधि मथै सइआन ॥
जीवत मुकत सदा निरबान ॥
कहि रविदास परम बैराग ॥
रिदै रामु की न जपसि अभाग ॥४॥१॥ अंग 1167

अर्थ: "(भक्त रविदास जी सारी सभा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि मैं ठाकुर की पूजा क्यों करता था और इसका मतलब क्या था। वनस्पति फल लाने के लिए फुलती-फलती है और जब फल लग जाते हैं तो फुल अपने आप दूर हो जाते हैं। अब जब गुरू की कृपा हो गई है तो सभी प्रकार के फोकट कर्मों का त्याग कर दिया है। एक समझदार स्त्री जिस प्रकार से दुध से मक्खन निकालने के लिए उसे रगड़ती है, वैसे ही भक्त जन जीवन मुक्त होने के लिए यानि मुक्ति पाने के लिए परमात्मा की भक्ति करते हैं। रविदास जी वैराग्य की बड़ी सुन्दर युक्ति बताते है– हे अभागों ! तुम्हारे दिल में हरि का निवास है, उसको क्यों नहीं सिमरते। अब मुझे परमात्मा की भक्ति करके यानि नाम जपकर परमात्मा के दर्शन हो गए हैं, जिस कारण से ठाकुर पूजा की अब कोई आवश्यकता नहीं है।)" रविदास जी के इस उपदेश से तो ब्राहम्णों के मन मे उथल-पुथल मच गई और सभी ब्राहम्ण और मरासी आदि ने गुरू दीक्षा लेकर नाम दान प्राप्त किया। यह कौतक 1535 बिक्रमी यानि सन 1478 को हुआ। उस समय आपकी उम्र 64 साल की थी।

नोट: भक्त रविदास जी ठाकुर की पूजा यानि मूर्ति की पूजा तथा तिलक लगाना, जनेऊ पहनना और शँख बजाना इसलिए करते थे, क्योंकि वह ब्राहम्णों से कहते थे कि मैं नीच जाति का हूँ तो क्या हुआ, सभी इन्सान बराबर होते हैं और वह ब्राहम्णों से यह फोकट कर्म छुड़वाना भी चाहते थे। क्योंकि इन कर्मों से परमात्मा तो कभी मिल ही नहीं सकता, बल्कि समय और पैसा भी बर्बाद होता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भक्त रविदास जी तो केवल परमात्मा का नाम ही जपते थे। वो तो अपने गुरू रामानँद जी के कहे अनुसार यूँ ही चल रहे थे। परन्तु बाद में जब उन्होंने यह फोकट कर्म छोड़ दिए तो उनके गुरू रामानँद जी ने भी अपने चेले का अनुसरण किया और उन्होंने भी यह फोकट कर्म छोड़ दिए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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