30. जान से मारने की धमकी
एक दिन काशी में बहुत भारी सँख्या में ब्राहम्ण आदि एकत्रित हुए और उन्होंने भक्त
रविदास जी को बुलाकर मार देने की युक्ति सोची और यह निर्णय लिया कि रविदास चमार है
और हमारे धर्म की हानि कर रहा है। अगर वह जनेऊ, तिलक, दोहरी धोती आदि त्याग दे तो
हमें कोई दुख नहीं है। हम अपने जीते जी, एक चमार के हाथों अपने धर्म की हानि नहीं
होने देंगे। उन्होंने रविदास जी को बुलाने के पीरांदिता मरासी को भेजा और कहा कि
उसके कुल के सभी छोटे-बड़े सलाहकारो को भी बुला लो, ताकि उसको पहले समझा दिया जाए।
पीरांदिता की बात सुनकर रविदास जी के श्रद्धालू बहुत कम निकले और बाकी के भाग गए।
रविदास जी निडर होकर चण्डाल चौकड़ी की सभा में पहुँचे। वहाँ पर सब ब्राहम्णों ने
गुण्डों की तरह हाथों में डण्डे, सोटे और कुल्हाड़ियाँ पकड़ी हुई थी। ब्राहम्णों ने
रविदास जी के पहुँचते ही सवाल किया: रविदास ! आप जनेऊ, तिलक और ठाकुर पूजा करना
त्याग दो और हमसे माफी माँगो। वरना यह सभा आपको आज बहुत तगड़ी सजा देगी, नीच जाति के
पुरूष को ब्राहम्णों के कर्म करने का और उनके भेष की निरादरी करने का अधिकार नहीं
है। धमकी सुनकर रविदास जी ने कहा: हे ब्राहम्णों ! वह कौनसा पुराण है जो कहता है कि
शुद्र परमात्मा का अँश नहीं हैं। जबकि आपका और हमारा शरीर तो एक जैसे पाँच तत्वों
से बना होता है। एक जैसा ढाँचा और एक ही जैसा रक्त है। मैं अपने परमात्मा की भक्ति
करके नीच से ऊच हुआ हूँ। जो इन्सान परमात्मा का सिमरन नहीं करता, वह ऊच जाति का होने
पर भी महा नीच है। मैंने रामानँद जी की कृपा से राम नाम का उपदेश लिया है और आपने
वेदों, शास्त्रों, जनेऊओं और तिलकों से कुछ नहीं लिया। जब ब्राहम्णों ने ऐसा
मुँहतोड़ उत्तर सुना तो वह फसाद पर उतर आए। इशारा होने पर भक्त रविदास जी को मार देने
के लिए हथियार उछले। आप पाखण्डियों का यह शोर देखकर मुस्कराए और अपना ध्यान परमात्मा
से जोड़ लिया। तब जितने भी फसादी थे, वह सारे आँखों से अन्धे हो गए। सभी पर जैसे
मिरगी का दौरा पड़ा और गिरने से कईयों के दाँत टूट गए और कई मूर्दों की तरह बेहोश
होकर लेट गए। कई तो क्रोध में दाँत भींचते ही रह गए उनके हाथों से हथियार गिर पड़े।
यह देखकर भक्त रविदास जी ने "राग सोरठ" में बाणी उच्चारण की:
जउ हम बांधे मोह फास हम प्रेम बधनि तुम बाधे ॥
अपने छूटन को जतनु करहु हम छूटे तुम आराधे ॥१॥
माधवे जानत हहु जैसी तैसी ॥
अब कहा करहुगे ऐसी ॥१॥ रहाउ ॥
मीनु पकरि फांकिओ अरु काटिओ रांधि कीओ बहु बानी ॥
खंड खंड करि भोजनु कीनो तऊ न बिसरिओ पानी ॥२॥
आपन बापै नाही किसी को भावन को हरि राजा ॥
मोह पटल सभु जगतु बिआपिओ भगत नही संतापा ॥३॥
कहि रविदास भगति इक बाढी अब इह का सिउ कहीऐ ॥
जा कारनि हम तुम आराधे सो दुखु अजहू सहीऐ ॥४॥२॥ अंग 658
अर्थ: "(हे परमात्मा ! अगर आपने हमें मोह की जँजीरों में बाँध
लिया है तो हमने भी आपको प्रेम की जँजीरों में बाँध लिया है। अब अपने छूटने का यत्न
करो हमारे पँजों से, हमने तो आपको जपकर अपने आपको कर्मकाण्ड की जँजीरों से मुक्त करा
लिया है। हे परमात्मा ! जैसी हमारी प्रीत है, वैसी आप जानते ही हो। अब बताओ कौनसा
यत्न करके हमारे प्रेम के पँजों से छूट सकोगे। एक झींवर ने मछली को पकड़ा, चीर-फाड़कर
टुकड़े किए और आग जलाकर खूब भूना और माँस खा लिया पर पानी की मछली फिर भी पानी माँगती
रही यानि मछली खाने वाले को घड़ी-घड़ी प्यास लगती है। परमात्मा किसी के बाप का नौकर
नहीं है, वह प्रेम करने वालों का प्यारा है यानि उसका राज प्रेमियों के दिल में है।
मोह रूपी पर्दा सारे सँसार की आँखों में पड़ा हुआ है, केवल परमात्मा के भक्त को ही
इसका दुख नहीं है। रविदास जी कहते हैं– हे परमात्मा ! हे माधव ! तेरी भक्ति अब हमारे
दिल में बढ़ गई है। अब हम किससे कहें कि जिसके लिए हम तेरा जाप करते हैं, वह दुख आज
भी हम सहन करने को तैयार हैं पर तेरा प्यार छोड़ने को तैयार नहीं। इस प्रकार रविदास
जी सिमरन करते हुए अपने घर पर आ गए और पीछे-पीछे उनके श्रद्धालू भी। यह कौतक देखकर
सभी की श्रद्धा और भी बढ़ गई। इसके बाद जब गुण्डों को होश आई तो वह शर्मिन्दा होकर
अपने घरों को लौट गए।