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29. राजा नागरमल का यज्

काशी के राजा नागरमल ने काशी में चितौड़गढ के राजा चन्द्रहांस के जैसा यज्ञ करने के लिए भक्त रविदास जी से परामर्श किया और भक्त रविदास जी ने हामी भर दी। यज्ञ में उसने सभी डेरों से पहुँचे हुए साधु महात्माओं ऋषियों-मुनियो और योगियां आदि को बुलाया। निश्चित समय पर यात्रियों की मण्डलियाँ आनी शुरू हो गई। कई लोग तो केवल रविदास जी के दर्शनों की इच्छा लेकर ही आए थे। यज्ञ में बहुत ही भारी भीड़ एकत्रित हूई। सेवकों ने रविदास जी के लिए आलीशान सिहाँसन बनवाया जिसमें हीरे-मोती, लाल आदि चमक रहे थे। जब पण्डाल में सब लोग बैठ गए और रविदास जी भी सिहाँसन पर बैठ गए तो माया की बारिश सी हो गई, सभी ब्राहम्ण इस आलौकिक लीला को देखकर दँग रह गए, ब्रजमोहन और राधेश्याम, रविदास जी के साथ चर्चा करने लग गए कि देखो भक्त जी आपकी जात चमार है और कर्म आप ब्राहम्णों जैसे करते हो। कलयुग में आपने यह उल्टी गँगा बहा दी है। जगत के गुरू चमारों की चरनी लगकर कल्याण के लिए कह रहे हैं। आपने यह अयोग्य तरीका धारण किया हुआ है। पूजा लेने का हक श्रेष्ठ कुल और अच्छे कर्मों वाले विद्वान महँत का है। इसलिए आपको नीच जाति होने के कारण यह कार्य छोड़ देना चाहिए। मनु सिमृती के अनुसार आपको यह परपँच करने का अधिकार भी नहीं है। इस प्रकार जब अहँकारी पण्डितों ने वाद-विवाद करना चालू किया तो रविदास जी ने अपनी आत्मिक शक्ति से दोनों को ऐसा जवाब दिया कि वह आगे कुछ कहने के लिए चुप हो गए। आपने "राग मलार" में यह बाणी उच्चारण की:

नागर जनां मेरी जाति बिखिआत चमारं ॥
रिदै राम गोबिंद गुन सारं ॥१॥ रहाउ ॥
सुरसरी सलल क्रित बारुनी रे संत जन करत नही पानं ॥
सुरा अपवित्र नत अवर जल रे सुरसरी मिलत नहि होइ आनं ॥१॥
तर तारि अपवित्र करि मानीऐ रे जैसे कागरा करत बीचारं ॥
भगति भागउतु लिखीऐ तिह ऊपरे पूजीऐ करि नमसकारं ॥२॥
मेरी जाति कुट बांढला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा ॥
अब बिप्र प्रधान तिहि करहि डंडउति तेरे नाम सरणाइ रविदासु दासा ॥३॥
अंग 1293

अर्थ: "(मेरे नगर के वेदाचारी लोगों ! आप मेरी जात चमार देखते हो, परन्तु मेरे दिल में राम नाम के गुणों का भण्डार भरा हुआ है, भाव मैंने मन में गोबिन्द के सिमरन को सम्भाल लिया है। चाहे शराब, गँगा का पानी ही मिलाकर बनाई गई हो, परन्तु परमात्मा के प्यारे संत उसको नहीं पीते। शराब बहुत खराब वस्तु है। और किसी पानी को गँगा में मिला दो तो वह गँगा का ही रूप हो जाता है, परन्तु शराब के साथ मिलकर शराब का ही रूप होता है, गँगा का नहीं। ताड़ का वृक्ष भी बड़ा अपवित्र होता है, परन्तु इस पर या कागज पर अगर हरि का नाम लिख दिया जाए तो लोग नमस्कार करने लगते हैं और पूजने लगते हैं। मेरी जाति चमड़ी काटने वाली है, यह काशी के आसपास मरे हुए पशूओं के ढेर ढोती है। हे वेदाचारियों ! यह तो परमात्मा के नाम की महिमा है कि अब सारी दुनियाँ के आप ही बने प्रधान ब्राहम्ण चरणों में नमस्कार करते हैं। परमात्मा की शरण में रविदास गिरा है, इसलिए अपना दास बना लो।)" रविदास जी की पवित्र बाणी और उसकी व्याख्या सुनकर पण्डित बृजलाल और राधेश्याम की ईर्ष्या खत्म हो गई। इसके बाद ब्राहम्णों ने गहन यज्ञ प्रारम्भ किया। बड़े-बड़े संत महँत रविदास जी के सामने इस प्रकार से बैठे थे, जिस प्रकार से चन्द्रमाँ के सामने तारे। श्रद्धालूओं की विनती पर भक्त रविदास जी ने एक और बाणी राग मलार में उच्चारण की:

हरि जपत तेऊ जना पदम कवलास पति तास सम तुलि नही आन कोऊ॥
एक ही एक अनेक होइ बिसथरिओ आन रे आन भरपूरि सोऊ ॥ रहाउ ॥
जा कै भागवतु लेखीऐ अवरु नही पेखीऐ तास की जाति आछोप छीपा ॥
बिआस महि लेखीऐ सनक महि पेखीऐ नाम की नामना सपत दीपा ॥१॥
जा कै ईदि बकरीदि कुल गऊ रे बधु करहि मानीअहि सेख सहीद पीरा ॥
जा कै बाप वैसी करी पूत ऐसी सरी तिहू रे लोक परसिध कबीरा ॥२॥
जा के कुट्मब के ढेढ सभ ढोर ढोवंत फिरहि अजहु बंनारसी आस पासा ॥
आचार सहित बिप्र करहि डंडउति तिन तनै रविदास दासान दासा ॥३॥
अंग 1293

अर्थ: "(जो भी इन्सान परमात्मा को जँचता है, उसके चरणों के बराबर ब्रहमा, विष्णु, शिव, लक्ष्मी और देवी देवता कोई भी नहीं है। एक ईश्वर अनेक रूप होकर सभी में विराजमान है, व्यापक है। हे भाईयों ! उस परमात्मा को अपने दिल में बसाओ, क्योंकि वह सभी में भरपूर है। जिसके भाग्य में लिखा है वह हरि के बगैर और कुछ नहीं देखते। देखो, भक्त नामदेव की और जो परमात्मा को जपकर हरि का रूप हो गया, उसकी जाति छीबां थी। श्री व्यास जी के उच्चारण किए हुए ग्रँथों में भी लिखा है और सनकादिक भक्तों के दिल में भी देखा है कि नाम की महिमा सातों द्वीपों में बिखरी हुई है। भक्त कबीर जी की तरफ देखो ! जिनके बड़े-बुजूर्ग ईद के त्यौहार और बकरीद वाले दिन गाय हलाल करते थे और शेखों, पीरों और मुरीदों को कुर्बानी देते थे और उनका कलमां मानते थे। जिसके बाप ने अपने कुल की रीति इस प्रकार से की पर उसके पुत्र ने ऐसी रीति की कि सँसार के सार झगड़े छोड़कर हरि को जपकर उन लोगों में मशहूर हो गए। जिस रविदास के कुटूम्ब के लोग अभी तक काशी के आसपास के मरे हुए पशू ढोते हैं, उनके पुत्र रविदास को, जो कि परमात्मा के दासों का दास है, बड़े कुल और जाति वाले ब्राहम्ण नमस्कार करते हैं।)"

यह बात भी सही है कि जो ब्राहम्ण भक्त रविदास जी की छाया को भी देखकर राम-राम करते हुए भाग जाते थे। वही ब्राहम्ण, भक्त रविदास जी के चरण की धूल अपने माथे पर लगाकर अपना सौभाग्य समझने लगे। भीलनी की कथा कौन नहीं जानता, वह भी नीच जाति की थी, उसे ब्राहम्णों ने पँपासर से घक्के मारकर निकाल दिया था। इस कारण पँपासर का जल अपवित्र हो गया। पण्डितों ने अपना सारा वेद कर्म का बल आजमाया, परन्तु जल पवित्र न हुआ। पर जब मयार्दा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी ने भीलनी के चरण पँपासर में डलवाए तो जल गँगा जल की तरह निर्मल हो गया, क्योंकि भीलनी के दिल में परमात्मा बसता था, उसके प्रेम के कारण रामचन्द्र जी ने उसके जूठे बेर खाए थे। नामदेव छीबां कीरतन में मस्त होकर मन्दिर में आ गया। धर्म के ठेकेदारों पण्डितों ने हाथ पैरों से पकड़कर मन्दिर के पीछे की तरफ फैंक दिया। नामदेव वहीं पर परमात्मा के नाम का सिमरन करने लगे पड़े। चमत्कार हुआ और मन्दिर की देहरी घुम गई और उसका मुँह नामदेव जी तरफ हो गया और सारे अहँकारी शर्मिन्दा हुए। परमात्मा अपने भक्तो की सदा लाज रखता है। जब रविदास जी से इस प्रकार से ब्रहम ज्ञान प्राप्त हुआ तो बृजलाल और राधेश्याम उनके चरणों में गिर पड़े और तन-मन से सेवक बन गए। पाँच दिन तक यज्ञ जारी रहा। अन्तिम दिन लँगर के लिए छत्तीस प्रकार के पकवान बनाए गए। रविदास जी के साथ लँगर में बैठने के लिए कुछ लोग और महात्माओं ने ऊँची जाति होने के कारण फसाद करना प्रारम्भ कर दिया। परन्तु राजा नगारमल ने पूलिस द्वारा ऐसे फसाद करने वालों को बाहर निकाल दिया। राजा नागरमल और उसके परिवार ने भक्त रविदास जी से नाम दान लिया और सँसार में सदा के लिए अमर हो गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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