24. परमात्मा के फिर से दर्शन होने
भक्त रविदास जी चितौड़गढ़ के राजा चन्द्रहांस के महल में सँध्या के समय ठाकुर जी की
पूजा में व्यस्त हो गए और दर्शन देने के लिए विनती की और राग धनासरी में बाणी
उच्चारण की:
हम सरि दीनु दइआलु न तुम सरि अब पतीआरु किआ कीजै ॥
बचनी तोर मोर मनु मानै जन कउ पूरनु दीजै ॥१॥
हउ बलि बलि जाउ रमईआ कारने ॥
कारन कवन अबोल ॥ रहाउ ॥
बहुत जनम बिछुरे थे माधउ इहु जनमु तुम्हारे लेखे ॥
कहि रविदास आस लगि जीवउ चिर भइओ दरसनु देखे ॥२॥१॥ अंग 694
अर्थ: "(हे परमात्मा ! मेरे जैसा गरीब और नीच कोई नहीं और तेरे
जैसा दया करने वाला कोई दाता नहीं है। मैंने परखकर निश्चय कर लिया है। तेरी बाणी से
मेरा मन शान्त हो जाए, बस अपने दास को यही भरोसा दो। हे परमात्मा जी ! मैं आप पर
बलिहार जाता हूँ, वारी जाता हूँ। परन्तु क्या कारण है कि आप मौन होकर बैठ गए हो,
कुछ बोलते नहीं। बेअंत जन्म हम आपसे बिछुड़े रहे हैं और अब मनुष्य जन्म पाया है और
अब इसको तुम्हारे लेखे लगा दिया है। भक्त रविदास जी कहते हैं कि हे परमात्मा ! मैं
तो केवल आपका आसरा ही चाहता हूँ। अब दिल उदास है, क्योंकि आपके दर्शन किए बहुत समय
हो गया है, अब किरपा करके आप दास को दर्शन दो।)" भक्त रविदास जी की प्रार्थना सुनकर
परमात्मा ने चतुरभुज रूप धरकर दर्शन दिए और किले के अन्दर अत्यधिक प्रकाश हो गया।
राजा के नेत्र खुल गए वह धन्य हो गया उसका जीवन सफल हो गया। रानी झाला भक्त रविदास
जी के सिर पर चौहर (चँवर) कर रही थी और राजा चन्द्रहांस भक्त रविदास जी के चरण धो
रहा था। राजा और रानी दोनों का जीवन सफल हो चुका था। राजा की विनती पर भक्त रविदास
जी ने दूसरे दिन की तिथी यज्ञ करने के लिए निश्चित कर दी। सभी विद्वान पण्डित बुला
लिए गए और यज्ञ करने की सामाग्री भी खरीद ली गई। संतों, महँतों के डेरों में भी
यज्ञ में शामिल होने के लिए निमँत्रण भेज दिए गए। ठाकुर को सिहाँसन पर सजाकर भक्त
रविदास जी ने एक बार फिर से सारी सभा को दर्शन कराए। आपके अन्दर नाम का बल था जिस
कारण ठाकुर में सच्चे ईश्वर के दर्शन हो रहे थे। भक्त तो रेत को आकाश के तारे और
मिट्टी को सोना बना देते हैं। नाम की बरकत से क्या नहीं हो सकता। भक्त जी राग जैतसरी
में बाणी का उच्चारण करते है, इस बाणी में दिल की गरीबी (मन से, दिल से) उछल-उछल
पड़ती है और इन्सान को नम्रता का सबक मिलता है:
नाथ कछूअ न जानउ ॥ मनु माइआ कै हाथि बिकानउ ॥१॥ रहाउ ॥
तुम कहीअत हौ जगत गुर सुआमी ॥ हम कहीअत कलिजुग के कामी ॥१॥
इन पंचन मेरो मनु जु बिगारिओ ॥ पलु पलु हरि जी ते अंतरु पारिओ ॥२॥
जत देखउ तत दुख की रासी ॥ अजौं न पत्याइ निगम भए साखी ॥३॥
गोतम नारि उमापति स्वामी ॥ सीसु धरनि सहस भग गांमी ॥४॥
इन दूतन खलु बधु करि मारिओ ॥ बडो निलाजु अजहू नही हारिओ ॥५॥
कहि रविदास कहा कैसे कीजै ॥ बिनु रघुनाथ सरनि का की लीजै ॥६॥१॥ अंग 710
अर्थ: "(हे परमात्मा ! गरीबों के मालिक मैं कुछ भी नहीं जानता
यानि मैं जप-तप भलाई आदि कुछ भी नहीं करता। मेरा मन मोह माया के हाथ बिक गया है,
अर्थात माया ने मन को मोह लिया है। आप जगत के स्वामी और दाता कहलाते हो। पर मैं
कलयुग का कामी और कपटी हूँ। इन पाँच विषयों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहँकार आदि) ने
मेरा मन बिगाड़ दिया है और परमात्मा से घड़ी-घड़ी दूर कर रहा है यानि दूर ले जा रहा
है। तेरे बगैर मैं जिस भी स्थान पर देखता हूँ, मूझे दुख की ही जगह मिलती है। मेरा
मन अभी भी नही मानता और नहीं पसीजता, वेद पुकार रहे हैं पर मन तो सबसे बलवान है।
पाँच भूतों ने तो ऋषि मुनियों को भूलेखे में डाल दिया है। गौतम ऋषि की स्त्री
अहिल्या पर इन्द्र मोहित हो गया और एक भग के पिछे उसके शरीर पर हजार भग जैसे निशान
फूट पड़े। ब्रहमा अपनी लड़की पर मोहित हो गया था। बेचारी कन्या अपना धर्म बचाने के
लिए चारों दिशाओं में भागी, परन्तु कामी ब्रहमा ने चारो तरफ मुँह निकाल लिए। कन्या
आकाश में उड़ने लगी तो ब्रहमा ने पाँचवा मुख माथे पर निकाल लिया। यह देखकर शिवजी को
क्रोध आ गया तो उन्होंने त्रिशूल मारकर ब्रहमा का पाँचवा सिर काट दिया। मन ने ऋषि
मुनियों का हाल इस प्रकार दयनीय बनाया है। इन कामादिक दूतों ने मूर्ख मन को मोह की
जँजीरों में बाँध-बाँधकर मार दिया है, परन्तु यह निर्ल्लज इतना है कि अभी भी शर्म
नहीं करता। रविदास जी कहते हैं कि हे परमात्मा ! बताओ क्या यत्न करें और तेरे बिना
किसकी शरण लें, दोनों जहानों में केवल आपका ही आसरा है क्योंकि तेरे अलावा दुनियाँ
में और कोई स्थिर रहने वाला नहीं है।)"