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23. पण्डितों की ईर्ष्या

महारानी झालाबाई और उसके साथी जब भक्त रविदास जी के डेरे पर कई दिनों तक सेवा करते रहे तो यह देखकर ब्राहम्ण और जोगी-जन आदि जलकर लाल हो गए और अनेक प्रकार की बातें करने लगे और कुछ शरारती ब्राहम्ण तो एकत्रित होकर चितौड़गढ़ राजा चन्द्रहांस के दरबार में जाकर शोर मचाने लगे। ब्राहम्ण बोले: हे राजन जी ! देखो, आप जैसे न्यायकारी, बुद्धिमान, धर्मरक्षक के घर ही अज्ञानता, मूर्खपन और भेड़ चाल आ गई है। आपकी रानी झालाबाई ने आपकी इज्जन को गँवा दिया है। उसने रविदास चमार को गुरू बना लिया है, जो कि एक नीच जाति का है और आप ऊच जाति के हो। आपकी रानी ने यह क्या घोर अनर्थ किया है। उसने अपने कुल की तो नाक ही काट दी है। आपकी रानी आप ही रविदास को पँखा करती है, स्नान कराती है और अपने साथियों के साथ उस नीच जाति के चमार के यहाँ भोजन भी खाती है। यह तो घोर कलयुग के लक्ष्ण हैं। अगर आपको हम पर भरोसा ना हो तो रविदास को यहीं बुलाकर परख लो। वह बिल्कुल महामूढ़, पाखण्डी और ठग है। उसकी ठगी ने अच्छे-अच्छे विद्वानों के दिमाग भी फेर दिए हैं। आप रविदास को यहीं पर बुलाकर उसे राजदण्ड दो और अपनी रानी को भी राजदण्ड से दण्डित करो।

भक्त रविदास जी के पास सन्देश भेजना : ब्राहम्णों द्वारा भड़काए जाने पर राजा चन्द्रहांस जलकर कोयला हो गया और उसने भक्त रविदास जी के पास शाही हुक्म लिखकर भेजा। शाही हुक्म में यह लिखा था हम अपने यहाँ पर एक यज्ञ का आयोजन कर रहे हैं इसलिए आप रानी झाला सहित दर्शन दें। राजा ने अपने मन में यह विचार भी किया कि अगर भक्त रविदास जी ने आते ही मेरे मन की बात जान ली तो मैं उसी समय उन्हें गुरू धारण कर लूँगा। भक्त रविदास जी के आने पर मैं अपनी कलगी उतारकर सिहाँसन के नीचे रख लूँगा। अगर उन्होंने कलगी के बारे में चर्चा की और कलगी कहाँ रखी है, बता दिया तो मैं उन्हें पूरन पुरूष समझकर उनके चरणों में गिर पड़ूँगा और गुरू बना लूँगा। मैंने गुरू, परीक्षा करके ही धारण करना है। जब सेवक, भक्त रविदास जी के पास पहुँचा तो उसने शाही हुक्म वाला सन्देश दे दिया। भक्त रविदास जी ने रानी झाला को बुलाकर वह सन्देश दिखाया। रानी ने कहा कि आप सँगत समेत हमारे साथ चितोड़गढ चलें और हमारे पतिदेव जी को भी गुरू ज्ञान देकर नाम दान दें। भक्त रविदास जी दूसरे दिन ही सँगत समेत रास्ते में आए लोगों को नाम दान देते हुए चितौड़गढ़ पहुँचे। राजा ने आगे आकर भक्त रविदास जी का स्वागत किया। मन में जो आग जल रही थी वह तो दर्शन करके ही शान्त हो गई। जिस प्रकार से सावन के महीने में बादल आकर घनघोर बारिश करके सूखी धरती की प्यास बूझा देते हैं। भक्त रविदास जी के माथे पर जब राजा ने चन्द्रमाँ जैसी जोत जलती देखी तो उसने नाम दान माँगने के लिए झोली की। रविदास जी ने कहा: राजन ! आपका मुकुट तो बिना कलगी के जँच ही नहीं रहा, आपने अपनी कलगी अपने सिहाँसन के नीचे क्यों रखी है। पहले आप कलगी सजाओ फिर आपको नाम दान भी प्रदान किया जाएगा। परमात्मा ने आपको राजभाग गरीबों की सेवा करने के लिए पिछले जन्म के तप करके दिया है, परन्तु मातलोक में मुख उजल तभी हो सकता है, जब आप अहँ भाव त्यागकर निष्काम होकर सेवा करो। भक्त जी की आज्ञा पाकर राजा ने तुरन्त कलगी सिहाँसन के नीचे से निकालकर सिर पर लगा ली। राजा की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो गईं। राजा ने अपनी रानी झालाबाई जी को धन्यवाद किया कि उनकी वजह से आज उन्हें नाम दान और एक सम्पूर्ण गुरू मिल गया है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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