22. कथा रानी झालाबाई जी की
चितौड़गढ़ के राजा चँद्रहांस की रानी झालाबाई थी। इसके दिल में ईश्वर प्राप्ति की धुन
लगी हुई थी। उसने कई तीर्थों का भ्रमण किया। अनेक सतपुरूष देखे परन्तु उसके मन को
शान्ति नहीं मिली। दिल में सच्चे गुरू के दर्शन करने की श्रद्धा थी और पूरन गुरू के
ना मिलने पर भी बढ़ती ही गई। जब इसने भक्त रविदास जी की नदी में ठाकुर तैराने और गँगा
के द्वारा कँगन देने वाली कथा सुनी तो उसके मन में दर्शन करने की चाह जागी। वह अपने
पति की आज्ञा लेकर नौकरों समेत चितौड़गढ़ से काशी में पहुँची। रविदास जी कथा कर रहे
थे। रानी ने माथा टेककर मोहरें चड़ाई और कथा सुनकर शान्ति पाई। साधसँगत के जाने के
बाद रानी ने हाथ जोड़कर नाम दान के लिए विनती की, परन्तु भक्त रविदास जी की चमार जाति
के कारण उनके मन में कुछ घृणा भी आई। अर्न्तयामी भक्त रविदास जी बोले: रानी जी !
अपनी मोहरें उठा लो, तुम्हारे मन में कुल का अहँकार है। मैं नीच जाति का भक्त हूँ।
तुमने ऊँची जाति में पैदा होकर नीच जाति के पैर पड़ने में अपनी हैठी समझी है, इसलिए
तुम किसी और के पास जाओ। इस प्रकार जब रानी ने देखा कि ये तो मन की भी बात जान लेते
हैं, तो वह चरणों में गिर पड़ी। रानी वैराग्य में आकर बोली: हे पूरन गुरूदेव जी ! मन
तो भूत है जो जीव को पल-पल में भरमाता रहता है, मैं आपकी शरण में आई हूँ, मूझे खाली
हाथ ना मोड़ो। मूझे आप अपने नाम के खजाने में से एक किनका या कण जितना दान देकर
कृतार्थ करो। मेरी पूरी जिन्दगी तीर्थ यात्राओं और ढोंगी साधू महात्माओं के चरण
झाड़ते हुए हो गई है, परन्तु शान्ति कहीं भी नहीं मिली। आपके चरण छूते ही भटकता मन
शान्त हो गया है, मैं आपके अलावा किसी दूसरे के दर पर नही जाऊँगी। रानी की श्रद्धा
देखकर भक्त रविदास जी के दिल में दया आई और उन्होंने "राग बसंत" में बाणी उच्चारण
की:
तुझहि सुझंता कछू नाहि ॥ पहिरावा देखे ऊभि जाहि ॥
गरबवती का नाही ठाउ ॥ तेरी गरदनि ऊपरि लवै काउ ॥१॥
तू कांइ गरबहि बावली ॥
जैसे भादउ खूमबराजु तू तिस ते खरी उतावली ॥१॥ रहाउ ॥
जैसे कुरंक नही पाइओ भेदु ॥ तनि सुगंध ढूढै प्रदेसु ॥
अप तन का जो करे बीचारु ॥ तिसु नही जमकंकरु करे खुआरु ॥२॥
पुत्र कलत्र का करहि अहंकारु ॥ ठाकुरु लेखा मगनहारु ॥
फेड़े का दुखु सहै जीउ ॥ पाछे किसहि पुकारहि पीउ पीउ ॥३॥
साधू की जउ लेहि ओट ॥ तेरे मिटहि पाप सभ कोटि कोटि ॥
कहि रविदास जु जपै नामु ॥
तिसु जाति न जनमु न जोनि कामु ॥४॥१॥ अंग 1196
अर्थ: "(हे महारानी ! तूझे सुझता कुछ नहीं, तूँ अपनी कुल का ऊँचा
पहिनावा देखकर ऊँची-ऊँची होई फिरती है। अहँकार बुद्धि का यहाँ-वहाँ यानि लोक-परलोक
में कोई स्थान नहीं। तेरे गले में काल रूपी कौवा काँव-काँव कर रहा है। हे भूली हुई
मूर्ख ! तूँ जात-पात रूप आदि का अहँकार क्यों करती है ? तेरी मिआद कुछ भी नही यानि
कि जल्दी ही नाश होने वाला है। जिस प्रकार से हिरन को मालूम नहीं होता कि सुगँध तो
उसकी नाभि में होती है, परन्तु वह खोजता फिरता है झाड़ियों में। वैसे ही परमात्मा को
अपने मन में खोज, बाहर यानि कि तीर्थों में, वनों में मत भटक। जो जीव अपने अन्दर
खोजता है, उसे परमात्मा की प्राप्ति होती है। फिर उसे यमदूतों की मार नही पड़ती। जो
कोई पुत्र, स्त्री आदि का अहँकार करता है, उससे परमात्मा लेखा माँगता है। किए हुए
कर्मों का फल इस जीव को भोगना पड़ता है। अगर मन को साधने वाले परमात्मा की शरण लोगी
तो जन्म-मरण पाप आप ही उतर जाऐंगे। रविदास जी कहते हैं कि जो परमात्मा का नाम जपते
हैं, उसका जात-पात जन्म जूनियों से कोई संबंध नहीं है।)" भक्त रविदास जी से यह
अमृतमयी बाणी सुनकर रानी के सारे भ्रम दूर हो गए, मन निर्मल हो गया और चरणों में
गिर पड़ी और ऊँचे कुल का अभिमान चला गया और दिन-रात साधसँगत की अपने हाथों से सेवा
करने लगी। रानी ने राजमहलों वाले वस्त्रों के स्थान पर साधारण वस्त्र धारण कर लिए।
भक्त रविदास जी ने महारानी को उपदेश दिया: हे देवी ! मन के मन्दिर में ही ईश्वर का
वास है। भगवे वस्त्र पहनकर, कानों में कुण्डल डालकर, सिर में राख डालकर, तीर्थों,
पहाड़ों और वनों में परमात्मा को खोजने की आवश्यकता नहीं है। उसको मन में खोजो और जपो।
आप अपने दरवाजे पर आए हुए अतिथी की सेवा करो। धर्म की कमाई करो और गरीबों में
बाँटकर खाओ। किसी का बूरा ना करो और ना ही बूरा सोचो। पति की कमाई में सन्तुष्ट रहो।
ब्रहम समय में उठकर प्रभू के सिमरन में लीन होना चाहिए। हर प्राणी की हरि का रूप
जानकर इज्जत करना। सबसे मीठा बोलना। बस इन्ही कर्मों से परमात्मा की प्राप्ति होगी।