21. बाजीगर का तमाशा
भक्त रविदास जी की शोभा सुनकर बाजीगर तमाशा दिखाकर कुछ कमाई करने के विचार से काशी
में आए और भक्त रविदास जी के डेरे से कुछ दूरी पर खूले मैदान में तमाशा दिखाना शरू
कर दिया। ढोल की आवाज सुनकर मैदान में बहुत सारे लोग एकत्रित हो गए। तमाशे वालों ने
उल्टी-सीधी छलाँगें लगाकर लोगों को इतना खुश किया कि लोगों के द्वारा धन की बारिश
होने लगी। कुछ शरारती लोगों और ब्राहम्णों ने आपस में सलाह की कि भक्त रविदास जी को
तमाशा दिखाने के लिए लेकर आते हैं अगर उन्होंने पैसे अच्छे दिए तो उनकी यह तमाशा
दिखाने वाले शोभा करेंगे लेकिन अगर उनके पास पैसे ही नहीं हुए तो यह लोग उनकी
गाँव-गाँव में बदनामी और निन्दा करते फिरेंगे। इस प्रकार का विचार करके यह लोग
रविदास जी के पास आए और तमाशे वाले मैदान में उनको लेकर आ गए। जब भक्त रविदास जी
तमाशे वाले मैदान में आए तो धन्य रविदास जी ! की आवाज से आकाश गूँज गया। बाजीगर ने
ऊँचे-ऊँचे जयकारे बोलकर तारीफ की। तमाशे के अन्त में एक बाजीगर थाली लेकर सभी के
पास धन के लिए जा रहा था। जब वह भक्त रविदास जी के पास गया तो भक्त रविदास जी ने
कुछ सोने की मोहरें उसकी थाली में रख दीं यह देखकर बाजीगर ऊँची-ऊँची आवाज में भक्त
रविदास जी की जय-जयकार करने लगा और तारीफ करने लगा। भक्त रविदास जी ने माया के
पूजारियों का यह तमाशा देखकर राग आसा में बाणी उच्चारण की:
माटी को पुतरा कैसे नचतु है ॥
देखै देखै सुनै बोलै दउरिओ फिरतु है ॥१॥ रहाउ ॥
जब कछु पावै तब गरबु करतु है ॥
माइआ गई तब रोवनु लगतु है ॥१॥
मन बच क्रम रस कसहि लुभाना ॥
बिनसि गइआ जाइ कहूं समाना ॥२॥
कहि रविदास बाजी जगु भाई ॥
बाजीगर सउ मुहि प्रीति बनि आई ॥३॥६॥ अंग 487
अर्थ: "(पाँच तत्वों की मिट्टी का पुतला किस ढँग से नाचता है,
कानों से सुनता है, जुबान से बोलता है, आँखों से देखता है, पैरों से चलता-फिरता है।
जब कुछ मिले तो खुशी से फूला नही समाता भाव यह कि अहँकार करता है और जब हाथ से कुछ
निकल जाए यानि कि कुछ ना मिले तो रोने लगता है। तन और मन से दुनियावी कामों में
लिपटा हुआ है। जब शरीर से प्राण निकल जाए तो कहीं का कहीं यानि कि जूनियों में पड़
जाता है। भक्त रविदास जी कहते हैं कि यह सँसार एक बाजी है और परमात्मा बाजीगर है।
इसलिए इस अदभुत खेलों के बाजीगर से मेरी प्रीत लगी हुई है और मैं उसकी कुदरत के
नजारें देख-देखकर खुश हो रहा हूँ।)" यह उपदेश सुनकर भक्त रविदास जी के कई शिष्य और
सेवक बने गए और नाम दान लेकर शान्ति हासिल की। जबकि ब्राहम्णों ने जब यह देखा कि
भक्त रविदास जी ने सोने की मोहरें दी हैं तो वह बँगले झाँकने लगे। तमाम दर्शक भक्त
रविदास जी से परमात्मा के जुड़ने की जुगती पूछने लगे। भक्त रविदास जी ने जिस-जिसका
सच्चा प्रेम देखा उसे अपनी चरणी लगाकर जुड़ने की विधी बताई और अवगुणों से बचने का
उपदेश दिया। अब मूर्ति पूजने वाले भी मूर्ति पूजा छोड़कर केवल राम नाम का जाप करने
लगे, क्योंकि उनको ज्ञात हो चुका था कि मूर्ति को पूरे जीवन भर पूजने पर भी परमात्मा
नहीं मिल सकता और समय और पैसा भी नष्ट होता है।