7. गँगा की भेंट
21 साल की आयु में भक्त रविदास
जी को घर लुटाता देखकर उसके पिता जी ने उसे अपने से अलग
कर दिया क्योंकि भक्त रविदास जी गरीबों और साधू संतों को जूते मूफ्त में बनाकर देते
थे। किसी के साथ मोल-तोल भी नहीं करते थे। खरीदार से वाजीब दाम लेते थे। रविदास जी
के यह कार्य देखकर पिता जी ने सोचा कि यह अपने परिवार की पालना आप ही करें। इसलिए
उन्होंने रविदास जी को घर के पिछली तरफ एक छत बनाकर दे दी और दुकान के लिए स्थान भी
दे दिया गया। रविदास जी का काम अपने पिता से अलग हो गया परन्तु उन्होंने अपने काम
में या सिमरन में कोई ढील नहीं होने दी। आपकी दुकान मौके पर ही थी यानि कि ऐन रास्ते
पर थी, जहाँ से काशीपुरी के आम लोगों का गुजरना होता था। 1492 बिक्रमी संवत सन 1435
में हरिद्वार में कुम्भ का मेला हुआ। महात्मा, संत, साधु, गृहस्थी लोग कल्याण हित
गँगा स्नान के स्नान के लिए आए। गाजीपुर से एक 400 बन्दों का काफिला, इस रास्ते से
निकला इसमें से एक गरीब ब्राहम्ण भी था। जिसका नाम गँगाराम था। इसके पैरों की जूती
टूटी हुई थी इसलिए इसने भक्त रविदास जी पास बैठकर जूती बनवाई। उन्होंने एक दमड़ी दी,
तो रविदास जी ने वह दमड़ी वापिस करते हुए कहा कि यह हमारी तरफ से आप माता गँगा जी को
भेंट कर देना। किनारे पर खड़े होकर विनती करना जब गँगा जी अपने हाथ निकाले तभी देना।
कहीं ऐसे ही पानी में नहीं फैंक देना और गँगा जी जो उत्तर दें वह मुझे बता देना।
भक्त रविदास जी के यह बचन सुनकर पण्डित हैरान हो गया और यह कौतक देखने के लिए गँगा
के घाट पर पहुँचा, स्नान किया और स्नान करके कपड़े पहने। और भक्त जी की दमड़ी निकालकर
विनती करने लगा: हे माता ! तेरे भक्त रविदास जी ने एक दमड़ी भेजी है, अपने भक्त की
भेंट को हाथ निकालकर स्वीकार करो। पण्डित जी के साथ में आए हुए लोग यह सोच रहे थे
कि आज तक अरबों संत साधू कुम्भ पर आए हैं, पर गँगा जी का हाथ किसी ने नहीं देखा, भला
गँगा क्यों उस चमार रविदास की भेंट लेने के लिए अपने हाथ आगे करेगी।
कई लोग तो तालियाँ मारने लगे। आखिर पण्डित जी की विनती सुनकर
माता गँगा ने अपना सीधा हाथ जल से ऊपर किया और दमड़ी ले ली। और कहा: पण्डित जी ! मेरे
भक्त के लिए मेरी तरफ से कुछ भेंट ले जाओ। यह कहकर गँगा ने अपने बाएँ हाथ से हीरों
से जड़ा हुआ कँगन निकालकर पण्डित जी के हाथ पर रख दिया और कहा कि यह रविदास जी को
देकर नमस्कार कहना। इस कौतक को लोगों ने जब देखा तो “धन्य भक्त रविदास जी“ सभी बोल
उठे। पण्डित गँगाराम इस हीरे के कँगन को देखकर अपना धर्म कर्म भूल गया और लोभ के
कारण सोचने लगा कि मैं इस कँगन को रविदास चमार को नहीं दूँगा और इसे किसी जौहरी को
दिखाकर बेच दूँगा और सारी जिन्दगी ऐश से गुजारूँगा। इस लालच के कारण वह रविदास जी
से बिना मिले ही अपने गाँव गाजीपुर पहुँच गया और घर जाकर कँगन को सम्भालकर रख दिया।
जब कुछ समय बीत गया तो पण्डितानी ने पण्डित से कहा कि: इसे किसी जौहरी के पास ले
जाकर बेच आओ। तब पण्डित बाजार में गया और कँगन को जौहरी को दिखाया तो वह हैरान हो
गया कि इतनी कीमती चीज इस कँगाल के पास कहाँ से आई है। जौहरी सोचने लगा कि जरूर
राजमहल में कथा करते समय रानी का कँगन चुराया होगा या फिर किसी दुराचरण रानी ने
प्रेमवश आप ही कँगन दिया होगा। जौहरी ने इस चोरी के माल को लेने से पहले यह सोचा कि
इस चोरी के माल को लेना खतरे से खाली नहीं है। जौहरी ने पण्डित को अन्दर बिठाकर झट
से पूलिस को चोरी की खबर दे दी। थानेदार ने कँगन समेत चोर को पकड़ लिया और चलान
गाजीपुर की अदालत में राजा चन्द्रप्रताप की तरफ भेज दिया ताकि वो शाही माल पहचानकर
चाहे जैसे फैसला करें। राजा ने कँगन देखकर पण्डित को दूसरा कँगन लाने के लिए और जहाँ
से लाया है वहाँ का पता बताने का हुक्म दिया, पण्डित ने राजा को गँगा वाली पूरी कथा
सुना दी और रविदास जी की महिमा भी बता दी। और कहा कि महाराज दूसरा कँगन लाने की
ताकत तो केवल रविदास जी में ही है। मैंने तो लोभ के चक्कर में यह कड़ा छिपा लिया था।
राजा ने थानेदार को हुक्म भेजा कि जल्दी से काशी में रहने वाले रविदास चमार को लेकर
मेरे पास पहुँचो। इस चोरी के माल का असली पता केवल उसी के पास है। अगर दूसरा कँगन
भी ला दें तो मैं उनकी करामात समझूँगा वरना इन दोनों को ही फाँसी पर चढ़ा दूँगा। राजा
चन्द्रप्रताप की यह रिर्पोट पढ़कर कोतवाल ने श्री रविदास जी के पास जाकर सारी
वार्त्ता ब्यान की। रविदास जी अपना जूते बनाने वाला सामान लेकर कोतवाल समेत गाजीपुर
पहुँचे और जुते बनाने बैठ गए और राजा को वहाँ आने के लिए कोतवाल को कह दिया। जब राजा
रानी समेत अपने महलों से रविदास जी के पास पहुँचा। तो रविदास जी ने कहा: राजन ! कहो
आपका क्या हुक्म है ? आप क्या चाहते हो ? राजा ने जब रविदास जी के दर्शन किए तो उसका
सारा क्रोध ही दूर हो गया जैसे चन्द्रमाँ के आने पर अन्धकार का नाश हो जाता है। राजा
ने विनती की: हे भक्त जी ! इस कँगन के साथ दूसरा कँगन मिलाओ तो ठीक है, नहीं तो चोरी
का माल जानकर पड़ताल की जाएगी और पण्डित को सजा दी जाएगी। रविदास जी राजा की धमकी
सुनकर मुस्कराए और उन्होंने "राग मारू" में एक शबद का उच्चारण किया:
सुख सागर सुरितरु चिंतामनि कामधेन बसि जा के रे ॥
चारि पदार्थ असट महा सिधि नव निधि कर तल ता कै ॥१॥
हरि हरि हरि न जपसि रसना ॥
अवर सभ छाडि बचन रचना ॥१॥ रहाउ ॥
नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अछर माही ॥
बिआस बीचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही ॥२॥
सहज समाधि उपाधि रहत होइ बडे भागि लिव लागी ॥
कहि रविदास उदास दास मति जनम मरन भै भागी ॥३॥ अंग 1106
अर्थ: परमात्मा का नाम ही सारे सुखों का समुन्दर है। कलप बिरछ
कामधेन गऊ आदि सब रतन उसके पास ही हैं। भाव उसके हुक्म के वश में हैं। चार पदार्थ,
अठारह सिद्धियाँ और नौ निधियाँ भी उसके हाथ की तली पर खेलती हैं। हे भाई ऐसे पातशाह
का हरि हरि नाम क्यों नहीं जपते। सभी तमाम झगड़े छोड़कर उसके नाम से साथ जुड़ो और सभी
प्रकार के नाटक छोड़ो। अनेक प्रकार के वेदों शास्त्रों का ज्ञान चौंतीस अक्षरों में
ब्यान किया गया है। श्री व्यास मुनी जी ने सभी को पढ़कर यही तत निकाला है कि ईश्वर
के नाम के तुल्य ओर कोई पदार्थ नहीं है। भाव यह है कि शान्ति तो केवल परमात्मा का
नाम जपने से ही मिलती है। सभी उपाधों और ब्याधो से रहित हरि के नाम के साथ जिसकी
लिव लगी है। वह बड़ा भाग्यशाली है। यानि कि भाग्यशाली मनुष्य की ही परमात्मा के नाम
से लिव जुड़ती है और उसे परमात्मा का नाम प्राप्त होता है। रविदास जी कहते हैं कि
दास हमेशा दुनियाँ के सुखों से उदास यानि कि दूर ही रहता है, इसलिए जन्म-मरण के सारे
डर ही भाग जाते हैं। इस शबद की समाप्ति के बाद जब रविदास जी ने जूती बनाने की शिला
उठाई तो उसके नीचे से गँगा का प्रवाह चल निकला। तब रविदास जी ने राजा से कहा कि इस
कँगन से पहचान कर दूसरा कँगन उठा लो। राजा इस शक्ति को देखकर हैरान हो गया और वह
उनके चरणों में गिर पड़ा और दूसरा कँगन गँगा से निकालकर दोनों कँगनों को उसने रविदास
जी के चरणों में रख दिया। रविदास जी ने राजा से कहा: राजन ! यह पण्डित बहुत निर्धन
है, यह दोनों कँगन इस ब्राहम्ण को दान कर दो। क्योंकि दान देते समय यह देखना चाहिए
कि दान लेने वाले को उसकी आवश्यकता है कि नहीं। इस पण्डित को इसकी आवश्यकता है और
यह उचित भी है, ताकि यह अपने परिवार के साथ सुख से जिन्दगी के दिन व्यतीत करे। राजा
ने वह दोनों कँगन तुरन्त उस पण्डित को दान कर दिए। सभी लोग रविदास जी से नाम दान
लेकर अपने-अपने घरों में खुशी-खुशी लौट आए।