6. शिकारी को शिक्षा
एक दिन भक्त रविदास जी जँगल में बैठे परमात्मा का सिमरन कर रहे थे। आपके ईद-गिर्द
हिरन आदि कुलाँचे मारते हुए घूम रहे थे। इसी जँगल में एक शिकारी हिरन को पकड़ने आ गया।
रविदास जी से थोड़ी ही दूरी पर इस शिकारी ने एक यँत्र बजाया, जिसकी मीठी सी आवाज से
मस्त होकर हिरनी पर आ गई। शिकारी ने जल्दी से उसके गले में रस्सी डालकर उसे काबू
में कर लिया। जब उस हिरनी को धोखे का पता चला तो वह इस बँधन को खोलने के लिए बहुत
तड़पी। परन्तु वह शिकारी के पँजे से कैसे बच सकती थी। हिरनी ने रो-रोकर शिकारी से कहा
कि: शिकारी भाई ! देख, मेरे बच्चे मेरा दुध पीने के लिए तड़प रहे होंगे। मुझ पर किरपा कर दो तो आपकी मेहरबानी का कोटि-कोटि धन्यवाद करूँगी। शिकारी ने कहा: ओ हिरनी ! तेरी
क्या इच्छा है, अगर मैं पूरी कर सकता हूँ तो जरूर करूँगा। हिरनी ने कहा: शिकारी भाई
! मुझे दो घड़ियों के लिए छोड़ दो मैं अपने बच्चों को दुध पिलाकर आ जाऊँगी फिर बेशक
मुझे पकड़कर मार देना। शिकारी को रहम आ गया वह बोला: हिरनी ! ठीक हैं, मैं तुझे छोड
दूँगा, परन्तु इसके लिए तुम्हें कोई जमानत देनी होगी, क्योंकि जँगल के जानवर का क्या
भरोसा, वापिस आया कि नहीं आया ? शिकारी और हिरनी का वार्त्तालाप सुनकर रविदास जी
पास आ गए। रविदास जी बोले: भले आदमी ! इस गरीब हिरनी की मैं जमानत देता हूँ अगर यह
वापिस नहीं आई तो इसकी जान के बदले मेरी जान ले लेना। यह सुनकर शिकारी ने उसे कुछ
देर के लिए छोड़ दिया। वह कुलाँचे भरती हुई अपने स्थान पर बच्चों को दुध पिलाने के
लिए चली गई। दुध पिलाने के बाद हिरनी ने अपने दोनों बच्चों से कहा कि मैं तुमसे
हमेशा के लिए विदा होने लगी हूँ, मुझे जँगल में एक शिकारी ने पकड़ लिया है। उस शिकारी
ने भक्त रविदास जी की जमानत पर मुझे दो घड़ियों के लिए छोड़ा है तुम्हें आखिरी बार
देखने के लिए। अब मुझे सदा के लिए विदा करो और माँ की ममता को सदा के लिए भूल जाओ,
क्योंकि मैं वापिस उस शिकारी के पास जा रही हूँ, जो मुझे पकड़कर ले जाएगा और मुझे
मारकर मेरा माँस अपने बच्चों को परोसेगा। मासूम बच्चे अपनी माँ की दास्तान सुनकर
उसके साथ मरने को तैयार हो गए। बच्चों ने कहा: माँ ! परमात्मा किसी को यतीम ना करे।
माँ के बिना तो मासूम बच्चों को हर स्थान पर ठोकरें मिलती हैं। हम आपके साथ मरकर ही
खुश होंगे। अब फैसला यह हुआ कि सभी उस शिकारी के पास जाऐंगे। जब पूरा परिवार ही
कुर्बानी देने के लिए शिकारी के पास पहुँचा तो शिकारी के मन में और भी रहम उठ आया
और वह मन ही मन अपने मन को धिक्कारने लगा, तब भक्त रविदास जी ने उसे समझाने के लिए
"राग आसा" में बाणी उच्चारण की:
म्रिग मीन भ्रिंग पतंग कुंचर एक दोख बिनास ॥
पंच दोख असाध जा महि ता की केतक आस ॥१॥
माधो अबिदिआ हित कीन ॥
बिबेक दीप मलीन ॥१॥ रहाउ ॥
त्रिगद जोनि अचेत स्मभव पुंन पाप असोच ॥
मानुखा अवतार दुलभ तिही संगति पोच ॥२॥
जीअ जंत जहा जहा लगु करम के बसि जाइ ॥
काल फास अबध लागे कछु न चलै उपाइ ॥३॥
रविदास दास उदास तजु भ्रमु तपन तपु गुर गिआन ॥
भगत जन भै हरन परमानंद करहु निदान ॥४॥१॥ अंग 486
अर्थ: "हिरन, मछली, भौरा, पतँगा और परवाना हाथी, यह पाँचों
एक-एक विषय करके नाश होते हैं, भाव हिरन कान के विषय करके, मछली लोभ करके, भौरा नाक
के विषय करके, पतँगा नेत्रों के विषय करके और हाथी काम के विषय करके मरता है। लेकिन
अकेले मनुष्य में पाँच चोर (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहँकार) हैं उसकी जिन्दगी की आस
कितनी सुरक्षित हो सकती है। यह पाँच विषय असाध्य हैं। हे करतार ! इस सँसार के जीवों
ने अज्ञानता के साथ प्यार किया हुआ है। भाव अँधेरा छाया हुआ है। साँप आदि टेड़ी
जूनियाँ हैं, जिन्हें पाप-पुण्य की सोच नहीं है और वह सच से रहित हैं। परन्तु मानव
जन्म दुर्लभ है, इसे सोच है, ज्ञान है फिर भी वह उन टेढ़ी जूनियों में उलझा हुआ है।
यह जीव जंत कर्मों के वश जहाँ-जहाँ भी जाते हैं वहाँ-वहाँ ही काल की न काटे जान वाली
फाँसी गले में पड़ जाती है और कोई उपाय नहीं चलता। रविदास जी उदास होकर विचारते हैं
और तपों में सबसे बड़ा तप गुरू के ज्ञान को ही मानते हैं। हे भक्त जनों के डर और खौफ
दूर करने वाले परमात्मा ! मैं अन्त समय में परम आनन्द को यानि कि तुझे प्राप्त करूँ।"
शिकारी ने शिष्य बनना : भक्त रविदास जी के उपदेश सुनकर शिकारी का मन प्यार और
वैराग्य से मोम हो गया और वह भक्त जी के चरणों में गिर पड़ा। अपने शस्त्र तोड़कर सदा
के लिए पाप से दूर रहने के लिए दुहाई दी और भक्त जी का शिष्य बनने के लिए हाथ जोड़कर
खड़ा हो गया। रविदास जी ने उसका प्रेम देखकर उसे गले से लगाकर उसे अपना शिष्य बनाया
और लोक सेवा का तरीका बताकर नाम जपने की जुगती दान दी। हिरनी समेत बच्चों को छुड़वा
दिया। हिरनी भक्त जी का धन्यवाद गाती हुई कुलाँचें मारती हुई बच्चों को जँगल की तरफ
लेकर दौड़ गई। यह हीरू नामक फाँदकी भक्त जी का पहला शिष्य हुआ। भक्त जी की महिमा
सुनकर काशी के सभी स्त्री पुरूष उनके दर्शनों को पहुँचने लगे और घर-घर में धन्य
रविदास जी की गूँजे सुनाई देने लगीं।