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5. रामानँद जी को गुरू बनाना

मन में दृढ़ निश्चय करके एक दिन रविदास जी श्री रामानँद स्वामी की जी शरण में आ गिरे और हाथ जोड़कर विनती की कि हे गुरू जी ! मुझे अपने दासों का दास जानकर नाम का दान प्रदान करें। परमात्मा की प्राप्ति गुरू की किरपा से ही होती है। कबीर जी ने कहा है कि:

कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इक रामु ।।
रामु ज दाता मुकति का संतु जपावै नाम ।।

जिस प्रकार चाबी के बगैर ताला नहीं खुलता, वैसे ही बिना गुरू के नाम की प्राप्ति नहीं होती। स्वामी रामानँद जी ने कहा: हे पुरूष ! एक तो आप नीच जाति के हैं, चमड़े का कार्य करते हैं। मेरे गुरूदेव जी और वेदों का कहना है कि शिष्य अच्छे जाति वाले, अच्छे गुणों वाले को बनाना चाहिए, शुद्र को शिष्य नहीं बनाना चाहिए और ना ही एक शुद्र का भजन और बँदगी के साथ कोई संबंध है और ना ही कोई हक। दूसरी बात यह कि आप ही ब्रहम ज्ञानी हो, पूरी काशी और सारे विद्वान आपकी शोभा का गायन करते थकते नहीं। मैं एक वैष्णों जीव हूँ, तुम एक निरँकार को जपने वाले हो। जो बर्तन पहले से ही भरपूर हो, उसमें ओर वस्तु डालनी ठीक नहीं होती। इसलिए आप जगत जीवों को नाम दान देकर सुधार करो तो आप खुद ही चारो वर्णों के गुरू होंगे। मैं आपका गुरू बनूँ, यह तो सूरज को रोशनी दिखाने वाली बात हुई। रविदास जी हैरान होकर बोले कि: स्वामी जी ! आप तो ज्ञानवान हो, आपको जाति-पाति के बन्धनों में पड़ना शोभा नहीं देता। ऊँची जाति का गुमान करना आप जैसे ब्रहमज्ञानी की शान के खिलाफ है। इसलिए आप मुझे चमार जानकर अपने चरणों से दूर ना करो। इतना कहकर रविदास जी वैराग्य में आ गए और "राग गउड़ी गुआरेरी" में यह शबद उच्चारण किया:

मेरी संगति पोच सोच दिनु राती ॥ मेरा करमु कुटिलता जनमु कुभांती ॥१॥
राम गुसईआ जीअ के जीवना ॥ मोहि न बिसारहु मै जनु तेरा ॥१॥ रहाउ ॥
मेरी हरहु बिपति जन करहु सुभाई ॥ चरण न छाडउ सरीर कल जाई ॥२॥
कहु रविदास परउ तेरी साभा ॥ बेगि मिलहु जन करि न बिलांबा ॥३॥१॥ अंग 345

अर्थ: यह ठीक है कि मेरी संगत नीचो के साथ है, यही सोच मुझे दिन-रात रहती है। मेरा काम कुटीलों वाला और टेढ़ा है और जन्म भी खूँटी की तरह है। हे गोसाँईं जी आप जीवों को जीवन दान देने वाले हो, इसलिए मुझे दिल से ना भूलाओ, मैं तो तुम्हारा दास हूँ। हे गुरूदेव, मेरी पीड़ा दूर करो और दास बनाकर सहायता करो। मैं आपके चरण नहीं छोड़ूँगा, चाहे मेरा शरीर कल (भलक) जाए। हे गुरूदेव ! रविदास तेरी शरण में आ गिरा है। इसलिए जल्दी से मेल कर लो, देरी ना करो। रविदास जी की इस नम्रता और प्रेम को देखकर रामानँद जी निरूत्तर हो गए और गले से लगाकर ब्रहमज्ञान का उपदेश दिया। रविदास जी ने "राग सूही" में एक और शबद उच्चारण किया:

सह की सार सुहागनि जानै ॥ तजि अभिमानु सुख रलीआ मानै ॥
तनु मनु देइ न अंतरु राखै ॥ अवरा देखि न सुनै अभाखै ॥१॥
सो कत जानै पीर पराई ॥ जा कै अंतरि दरदु न पाई ॥१॥ रहाउ ॥
दुखी दुहागनि दुइ पख हीनी ॥ जिनि नाह निरंतरि भगति न कीनी ॥
पुर सलात का पंथु दुहेला ॥ संगि न साथी गवनु इकेला ॥२॥
दुखीआ दरदवंदु दरि आइआ ॥ बहुतु पिआस जबाबु न पाइआ ॥
कहि रविदास सरनि प्रभ तेरी ॥ जिउ जानहु तिउ करु गति मेरी ॥३॥१॥ अंग 793

अर्थ: पति की सार तो सुहागन ही जानती है, जो अपने अहँकार को छोड़कर सुख और आनन्द प्राप्त करती है। तन, मन सब कुछ पति को सौंप देती है और अपने मन में कोई भेद नही रखती और एक रूप हो जाती है। जो ओर किसी मर्द को नहीं देखती। वो कब किसी के बेगाने दर्द को समझ पाता है जिसके अन्दर कौड़ी जितना भी प्यार नहीं। दोहागन यानि कि खोटे कर्मों वाली स्त्री दोनों स्थानों पर यानि मायके और ससुराल के सुख से हीन होकर दुख पाती है। जो अपने पति से मन करके भेद रखती है और आज्ञा (भक्ति) का पालन नहीं करती। वो लोक और परलोक दोनों स्थानों पर धक्के खाती है। भाव जीव रूप स्त्री परमात्मा पति से बेमुख होकर खोटे कर्मों में लगकर दुख पाती है। भवजल का रास्ता बड़ा खराब और दुख देने वाला है और बड़ा ही भयावना है और वहाँ पर कोई सँगी साथी साथ नहीं चलता और जीव को अकेले ही जाना पड़ता है। हे गरीबों के कदरवँद दुख भँजन करने वाले गुरूदेव ऍ दुखी खुद आपके दरवाजे पर आया है और आपने अभी तक मेरी इच्छा पूर्ण नहीं की। श्री रविदास जी कहते हैं– हे ईश्वर ! मैं तेरी शरण में आया हूँ, केवल तेरा ही आसरा है, जैसे भी हो सके इस जीव का पार उतारा करो। स्वामी रामानँद जी बोले: बच्चा ! किसी जीव को दुख नहीं देना, मास शराब, भाँग आदि किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करना। रोज तड़के उठकर स्नान नाम सिमरन करना। जो दर पर शिक्षा लेने आए उसे इसी प्रकार से शिक्षा देना। धर्म की कमाई करके मिलबाँट कर खाना। जीव मात्र की सेवा करनी।

घर वापिस आ जाना : स्वामी रामानँद जी से उपदेश लेकर भक्त रविदास जी दिन रात धर्म की कमाई करने लगे और नाम जपने लगे और बाँटकर खाने लगे और उनके डेरे पर जो भी संत, साधु आदि आते थे उनको नया जोड़ा भी दान करते थे। पिता जी ने उन्हें भला कार्य करने से कभी भी नहीं रोका, बल्कि इस कार्य में उनका हाथ बँटाते थे। आपकी महिमा सुन-सुनकर ब्राहम्णी सभ्यता भी आपके चरण पड़ने लगे। “बोले धन्य श्री रविदास जी“। रामानंद जी ने कहा था कि दो पहर पूरे पाठ-पूजा में गुजारो और दो पहर अपना काम-काज आदि में। जूते बनाने का कार्य रविदास जी बड़े ही प्यार से करते। जो भी ग्राहक आता उससे वाजिब दाम ही लेते कभी ज्यादा नहीं लेते थे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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