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3. काम-काज में लगना

इस प्रकार जब अदभुत कौतक करके रविदास जी की उम्र दस साल की हो गई तो पिता सँतोखदास जी ने कहा बच्चे अगर तुम विद्या पढ़ लेते तो तुझे दुकान डाल देते। परमात्मा ने माया बहुत दी है और माया ही माया कमाती है। व्यवसाय का काम अनपढ़ बन्दे से नहीं हो सकता नहीं तो तुझे किसी अच्छे व्यवसाय में लगा देते। अब तो तुझे बाप-दादा का पैतृक कार्य ही करना होगा, जिससे तूँ कमाकर खाने योग्य हो जाए, क्योंकि बेरोजगार बन्दे का तो कुटुम्ब तो अलग रहा, अपना पेट भी पालना मुश्किल हो जाता है। रविदास जी ने अपने पिता जी की आज्ञा मानकर जूतों को सीने का काम करना प्रारम्भ कर दिया। माता पिता का थोड़ा सा इशारा पाकर आप बड़ी चतुराइ से बहुत ही अच्छा काम करने लगते, जिसे देखकर परिवार के सभी लोग बहुत प्रसन्न होते। वह नई बनी जूतियो के ऊपर ऐसी कलाकारी करते कि लोग हैरान हो जाते। जो काम कई घण्टों का होता उसे वह चँद मिनटों में ही कर लेते थे। आपका मीठा स्वभाव, बोलचाल और स्वभाव देखकर सारे लोग प्रशँसा करते और आपकी शोभा सुनकर लोग बालक के दर्शन करने आते। लोग जो भी उसने सवाल करते, रविदास जी इस प्रकार का जवाब देते कि लोग निरूत्तर हो जाते। रविदास जी के नेत्र खुले और नीचे की तरफ रहते थे, आप कभी भी आम लोगों की तरह आसपास नही झाँकते थे। आपको जब भी काम से अवकाश मिलता तो आप अपने नेत्र बन्द करके परमात्मा के सिमरन में जुड़ जाया करते थे। उनकी साँस-साँस के साथ अपने आप जाप चलने लग जाता था।

अजपा जापु न विसरै आदि जुगादि समाइ ।।

आप पक्का घागा लाकर ऐसा सुन्दर काम करते कि ग्राहक एक बार ले जाए तो लौटकर रविदास जी के पास ही आता था। अन्य दुकानदारों की अपेक्षा आप नये जूतों के जोड़े वाजिब कीमत पर बेचते थे। ईमानदारी से कार्य करना आप अपना फर्ज समझते थे। रविदास जी के साफ चरित्र की बिरादरी में और सारे शहर में चर्चा होने लगी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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