20. राजा नागरमल की कथा
भक्त रविदास जी द्वारा गँगा नदी पर किए गए कौतक को देखकर सारे निँदक शर्मिन्दा हुए
और राजा नागरमल ने भक्त रविदास जी से कहा कि ब्राहम्ण झूठे साबित हूए हैं आप चाहो
तो इन्हें दण्डित किया जाए। भक्त रविदास जी ने कहा: राजन ! यह मूर्ख हैं और मूर्खों
पर गुस्सा करने वाला आप ही मूर्ख कहलाता है। परमात्मा की पूजा करने का सभी को एक
जैसा हक है। इन ब्राहम्णों को जात-पात का अहँकार है, परन्तु परमात्मा के दरबार में
सभी एक समान गिने जाते हैं। परमात्मा के दरबार में कुल और जाति के नहीं बल्कि कर्मों
के फैसले होते हैं। इन पण्डितों की सबसे बड़ी सजा यही है कि यह आगे से हमारी पाठ-पूजा
में विघ्न ना डालें। समय आ गया है कि जब इनकी कौड़ी बराबर भी कद्र नहीं रहेगी। धर्म
के रक्षक बनने वाले, चौकीदर और चपरासियों के काम किया करेंगे। भक्त रविदास जी की यह
शिक्षा सुनकर राजा नागरमल उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला: हे नाथ ! मेरी अवज्ञा की
क्षमा दो और नाम दान देकर जन्म-मरण के चक्कर से बचा लो। आप परमात्मा का सच्चा
स्वरूप हो। यह ब्राहम्ण और काजी मौलवी आदि तो धर्म की चादर ओढ़कर भोले भक्तों को ठगने
वाले लोग हैं और कर्मकाण्डों की जँजीरों में भाले-भाले जीवों को बाँध रहे हैं।
परन्तु अब परमात्मा गुलामों के बन्धन काटने के लिए आपके शरीर में प्रकट हुए हैं। हे
नाथ ! जैसे जानते हो वैसे भवजल से बचा लो। राजा की यह विनम्र विनती सुनकर रविदास जी
दयाल हुए और गुरूमँत्र देकर अपना शिष्य बना लिया। फिर रानी और सारे परिवार को भी
नाम दान देकर तृप्त किया। इसके उपरान्त भक्त रविदास जी ने संगत को नाम दान की जुगती
बताकर "राग सूही" में बाणी उच्चारण की:
जो दिन आवहि सो दिन जाही ॥ करना कूचु रहनु थिरु नाही ॥
संगु चलत है हम भी चलना ॥ दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना ॥१॥
किआ तू सोइआ जागु इआना ॥ तै जीवनु जगि सचु करि जाना ॥१॥ रहाउ ॥
जिनि जीउ दीआ सु रिजकु अम्मबरावै ॥ सभ घट भीतरि हाटु चलावै ॥
करि बंदिगी छाडि मै मेरा ॥ हिरदै नामु सम्हारि सवेरा ॥२॥
जनमु सिरानो पंथु न सवारा ॥ सांझ परी दह दिस अंधिआरा ॥
कहि रविदास निदानि दिवाने ॥
चेतसि नाही दुनीआ फन खाने ॥३॥२॥ अंग 793
अर्थ: "(हे राजन ! जो दिन आता है वो निकल जाता है यानि फिर से
नहीं आना, वैसे ही हमें भी कूच करना है, हमेशा यहाँ पर नहीं रहना। जैसे हमारे साथी
जा रहे हैं, वैसे हमें भी जाना है। आगे जिस मौत के रास्ते को हम दूर समझते हैं, वह
तो हमारे सिर पर ही चड़ गया है। हे जीव ! तूँ मूर्खों की तरह क्यों सोया हुआ है, अब
जागने की जरूरत है। तूँ चार दिन के झूठे सँसार और जीवन को सच्चा जानकर गाफिल हो गया
है। जिस करतार ने तूझे शरीर देकर अन्दर जान डाली है और वो ही तूझे रोजी दे रहा है।
हरेक जीव के दिल में परमात्मा बनिए की तरह हाट खोलकर काम चला रहा है। इसलिए हे जीव
! उस सिरजनहार की भक्ति कर और अहँकार छोड़ दे और रोज सिमरन किया कर, अभी तेरी उम्र
का समय बाकी है। यह वक्त बीत गया तो फिर हाथ नहीं आएगा। तेरा कीमती हीरा जन्म ऐसे
ही बीत रहा है। पर तूने अपने परलोक का रास्ता नहीं सवाँरा, अब बूढ़ापे के कारण सँध्या
हो गई है दसों दिशाओं में मौत का घोर-अँधकार हो रहा है। रविदास जी कहते हैं– हे
मूर्ख लोगों ! परमात्मा का सिमरन क्यों नहीं करते, यह दुनियाँ फनाह का मकान है।)"
जिस प्रकार से:
ऊचे मंदर साल रसोई ॥ एक घरी फुनि रहनु न होई ॥१॥
इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी ॥
जलि गइओ घासु रलि गइओ माटी ॥१॥ रहाउ ॥
भाई बंध कुट्मब सहेरा ॥ ओइ भी लागे काढु सवेरा ॥२॥
घर की नारि उरहि तन लागी ॥ उह तउ भूतु भूतु करि भागी ॥३॥
कहि रविदास सभै जगु लूटिआ ॥
हम तउ एक रामु कहि छूटिआ ॥४॥३॥ अंग 794
अर्थ: "(ऊँचे महल, सुन्दर रसोईखाने, अन्त के समय में इनमें एक
घड़ी भी रहने को नहीं मिलना। पँच भूतक शरीर मौत रूपी आग के सामने सूखे हुई घास की
तरह है। जब शरीर जल जाता है तो राख मिट्टी में मिल जाती है। प्राण निकल जाऐं तो भाई,
रिशतेदार, दोस्त, परिवार के लोग कहते हैं कि जल्दी से ले जाओ वरना मूर्दा खराब हो
जाएगा यानि देर हो जाएगी, जल्दी से दिन में ही सँस्कार कर आओ। घरवाली यानि स्त्री
जो जीवन सँगिनी होती है। वह भी भूत-प्रेत कह-कह पीछे हट जाती है। रविदास जी कहते
हैं कि अज्ञानता ने सारे सँसार को लूट लिया है। परन्तु हम केवल एक राम नाम का सिमरन
करके पाँच डाकूओं के पँजे से छूट गए हैं। इसलिए हे राजन ! सेवा और सिमरन का समय अभी
भी है फिर यह वक्त हाथ नही आना।)"
भक्त रविदास जी का काशी वापिस आना : इस प्रकार अनेक
मूर्खों को नाम दान दिया और राजा नागरमल और उसके पूरे परिवार को नाम दान दिया। आप
दुखी जीवों को नाम दान देकर सँगत समेत वापिस काशीपुरी में पहुँचे। सारा शहर दर्शनों
के लिए उमड़ पड़ा। भक्त रविदास जी ने उस सारी भेंट का लँगर लगवा दिया जो कि राजा
नागरमल ने भेंट की थी। अब चारों वर्ण के लोग भक्त रविदास जी को परमात्मा का रूप
जानकर मानने लगे। भक्त रविदास जी अपने शिष्यों की सभा में बैठे हुए इस प्रकार
प्रतीत हो रहे थे, जिस प्रकार तारों की सभा में चन्द्रमाँ प्रतीत होता है।