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2. विद्याध्यन

रविदास जी ने अँधेरे घर में प्रकाश कर दिया। दाई लखपती बालक को गोदी में से नीचे ही नहीं उतारती थी। अब बालक रविदास धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। बालक अपनी नन्हीं-नन्हीं शैतानियों से माता-पिता को खुश करते रहते थे। बालक रविदास जी हमेशा खुश रहते थे। बाहर जब वह सँगी साथी बालकों के साथ खेलने जाते तो सभी को हरि का यानि परमात्मा का सिमरन करने का तरीका बताते रहते थे। देखने वाले बड़े हैरान होते कि इस नीच जाति वाले के घर में यह रब का रूप लेकर इसने कैसे जन्म ले लिया। बालक रविदास को जो भी चीज घर से खाने में मिलती वह अकेले नहीं खाते थे, बल्कि सभी सँगी साथियों में मिल-बाँटकर खाते थे। इस प्रकार रविदास जी पाँच साल के हो गए तो पिता सँतोखदास जी ने रविदास जी को पढ़वाने के लिए पण्डित शारदानँद जी के पास बताशे और रूपये लेकर हाजिर हुए। पण्डित जी ने रूपये ले लिए और बताशे बालकों मे बाँट दिए और कहा कि आप चिन्ता न करें, मैं आपके पुत्र रविदास जी को शिक्षा में निपुण कर दूँगा। पिता सँतोखदास जी बालक रविदास जी को दाखिला दिलवाकर वापिस आ गए। पण्डित जी ने रविदास जी को क, ख, ग आदि अक्षर पढ़ने और सीखने के लिए दिए पर रविदास जी चुपचाप बैठे रहे। यह देखकर पाठशाला के सारे विद्वान पण्डित आ गए और कहने लगे परन्तु बालक रविदास जी मस्त बैठे रहे। सब कहने लगे: देखो भाई ! इस नीच कुल के बालक के भाग्य में कहाँ विद्या है और इसे विद्या की सार ही क्या है ? और हँसने लग पड़े। परन्तु वह यह नहीं जानते थे कि श्री रविदास जी तो कुदरती विद्या पढ़े हुए थे इनके मन में कूट-कूटकर ज्ञान भरा हुआ था। रविदास जी ने सबसे पहला शब्द उच्चारण किया। यह आपकी बाणी का पहला शब्द है, जो कि पाठशाला में उच्चारण हुआ:

राग रामकली बाणी रविदास जी की
पड़ीऐ गुनीऐ नामु सभु सुनीऐ अनभउ भाउ न दरसै ॥
लोहा कंचनु हिरन होइ कैसे जउ पारसहि न परसै ॥१॥
देव संसै गांठि न छूटै ॥
काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे ॥१॥ रहाउ ॥
हम बड कबि कुलीन हम पंडित हम जोगी संनिआसी ॥
गिआनी गुनी सूर हम दाते इह बुधि कबहि न नासी ॥२॥
कहु रविदास सभै नही समझसि भूलि परे जैसे बउरे ॥
मोहि अधारु नामु नाराइन जीवन प्रान धन मोरे ॥३॥१॥  अंग 973

अर्थ: हे भाई ! वेदों, शास्त्रों, पुराणों को आप कितना भी पढ़ो और उसके दिए नामों को विचारों और सुनो तो भी असली ज्ञान नहीं हो सकता। जिस प्रकार लोहे को भट्टी में कितना भी गर्म कर लो, तपा लो तब भी वह सोना नहीं बन सकता, जब तक कि वह पारस के साथ न लगे। जन्मों-जन्मान्तर कि जो दुनियावी गाँठ दिलों में बँधी हुई है वह पढ़ने और सुनने से नहीं खुलती। काम, क्रोध आदि पाँच विषयों ने मनुष्य को लूट लिया है। यह बहुत भारी डाकू हैं। आपको यह अहँकार है कि आप बड़े कवि हो, ऊँचीं जाति के पण्डित हो, बहुत भारी जोगी और सन्यासी हो। आपने सारे वेद पढ़ लिए परन्तु कुमति यानि कि अहँकार रूपी बुद्धि दूर नहीं हुई। आपको अहँकार का डाकू लूटे जा रहा है। रविदास जी कहते हैं आप सब मूर्खों की तरह भूले हुए हों। उस परमात्मा के ठीक रास्ते और ज्ञान को नहीं समझते। मुझे केवल एक नारायण यानि कि परमात्मा के नाम का ही आसरा है वो ही मेरे प्राणों को कायम रखने वाला है। केवल विद्या पढ़कर ही परमात्मा की प्राप्ति नहीं समझ लेनी चाहिए। बालक रविदास जी के मुख से यह परमात्मिक उपदेश सुनकर सभी उनके आगे झुक गए और सभी एक साथ बोले कि यह बालक तो परमात्मा की और से ही सभी शिक्षा लेकर आया है। पढ़े हुए को कौन पढ़ाए ? तब पण्डित जी ने एक नौकर को भेजकर पिता सँतोखदास जी को बुलाया और उसे सारी जानकारी दी और कहा कि यह तो पहले से ही सब कुछ पढ़ा हुआ है। इसकी बुद्धि तो ऐसी है कि बड़े-बड़े ज्ञानी विज्ञानी भी जहाँ नहीं पहुँच सकते। इसलिए इस बालक को पढ़ाने का हममें सामर्थ नहीं है। यह बालक आने वाले समय में सँसार का उद्धार करेगा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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