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19. ठाकुर तैरने लगे

सारे काजी और ब्राहम्ण मिलकर राजा नागरमल के दरबार पहुँचे और भक्त रविदास जी के खिलाफ धर्म की तौहीन का दावा कर दिया। सारे ब्राहम्णों ने एकमत होकर कहा कि हम तो केवल चमार से ठाकुर की पूजा छुड़वाना चाहते हैं। अगर आप रविदास को बुलाकर न्याय नहीं करोगे तो हम आपके दरबार के आगे आत्महत्या कर लेंगे जिससे आप पर ब्राहम्ण हत्या का पाप लगेगा और आपका सारा कुल नर्क में जाएगा। धर्म के ठेकेदारों की यह धमकी सुनकर राजा नागरमल काँप गया और शाही फरमान लिखकर एक सिपाही काशी की तरफ रविदास जी को लाने के लिए दौड़ा दिया। फरमान पर लिखा था कि रविदास भी और ब्राहम्ण भी अपने-अपने ठाकुर लेकर हाजिर हों। भक्त रविदास जी ने जब यह फरमान सुना तो बड़ी खुशी के साथ कुछ साथियों समेत ठाकुर लेकर गाजीपुर पहुँच गए। दूसरी तरफ ब्राहम्ण भी अपने ठाकुर लेकर दरबार मे आ गए। नागरमल कुछ क्रोध में रविदास जी से बोले: देख भाई ! तूने उल्टी गँगा बहा दी है। अपना कर्म छोड़कर ब्राहम्णों के धर्म में दखल देते हो और ठाकुर पूजते हो इसलिए पण्डितों ने दावा किया है कि तूझे राजदण्ड मिलना चाहिए। रविदास जी ने हँसकर कहा: राजन ! मैं पत्थरों को नहीं पूजता। मैं तो केवल सच्चे ठाकुर यानि परमात्मा की भक्ति करता हूँ और उसका नाम ही जपता हूँ। मेरे ठाकुर चलते-फिरते, खाते-पीते और बालते-सुनते हैं, जो कहूँ वो ही करते हैं, मैं मूर्दा वस्तु की पूजा नहीं करता, जिस प्रकार से यह ब्राहम्ण लोग मूर्ति पूजते हैं। परमात्मा का नाम जपने से जिस प्रकार कबीर जैसा जुलाहा, नामदेव जैसा छीबा, घन्ने जैसा गवाँर तर गया, वैसे ही उसका नाम जपकर मैं नीच से ऊँच हो गया हूँ। ऐसा करने का हक केवल ब्राहम्णों का नहीं यह तो उस परमात्मा द्वारा बनाए गए हर जीव का हक है। यह उत्तर सुनकर वजीर ने कहा कि: दोनों पक्ष अपने-अपने ठाकुर नदी में तैराएँ जिसके ठाकुर तैर जाए वह सच्चा और जिसके डूब जाए वह झूठा साबित होगा। यह कौतक देखने के लिए पुरा नगर ही गँगा किनारे पर उमड़ पड़ा। किनारे पर खड़े होकर राजा ने कहा कि अपने-अपने ठाकुर को पानी में तैराओ और फिर अपने पास वापिस बुलाओ। रविदास जी को यह हुक्म सुनकर प्रसन्नता हुई। तभी सारे ब्राहम्ण एक साथ बोले: राजन ! पहले रविदास को हुक्म दिया जाए कि वो अपने ठाकुर पानी मैं तैराएँ बाद में हम ऐसा करेंगे। भक्त रविदास जी ने कहा: महाराज जी ! यह ब्राहम्ण ही अपने आपको धर्म का ठेकेदार कहते हैं और ठाकुर की पूजा पर भी अधिकार जताते हैं, हर पूजा के कार्य की पहल भी यही करते हैं, इसलिए इन्हें ही यहाँ पर भी पहल करने के लिए कहें कि वह अपने ठाकुर पहले पानी में तैराएँ। राजा नागरमल क्रोध में ब्राहम्णों से बोला: ब्राहम्णों ! जल्दी से अपने ठाकुर नदी के पानी में तैराओ। ब्राहम्णों ने डर के मारे मँत्र उच्चारण करके अपने-अपने ठाकुर पानी में तैराए, परन्तु वह तो पत्थर की मूर्तियाँ थीं, इसलिए देखते ही देखते डूब गईं।  राजा नागरमल ने ब्राहम्णों से कहा: अब ठाकुर जी को वापिस बुलाओ। परन्तु ब्राहम्णों की पूकार पर एक भी मूर्ति वापिस नहीं आई। अब भक्त रविदास जी ने अपने ठाकुर पानी में अरदास करके तैराए, यहाँ पर परमात्मा की ऐसी माया हुई कि रविदास जी के ठाकुर नाव की तरह तैरने लग गए। इस कौतक को राजा बड़ी हैरानी से देखता रहा। राजा ने कहा– भक्त रविदास जी ! अपने ठाकुर को अपने पास बुलाओ। तो भक्त रविदास जी ने राजा का हुक्म सुनकर पूजा का सामान निकालकर धूप धुखाकर राग धनासरी में आरती करने लगे:

नामु तेरो आरती मजनु मुरारे ॥
हरि के नाम बिनु झूठे सगल पासारे ॥१॥ रहाउ ॥
नामु तेरो आसनो नामु तेरो उरसा नामु तेरा केसरो ले छिटकारे ॥
नामु तेरा अम्मभुला नामु तेरो चंदनो घसि जपे नामु ले तुझहि कउ चारे ॥१॥
नामु तेरा दीवा नामु तेरो बाती नामु तेरो तेलु ले माहि पसारे ॥
नाम तेरे की जोति लगाई भइओ उजिआरो भवन सगलारे ॥२॥
नामु तेरो तागा नामु फूल माला भार अठारह सगल जूठारे ॥
तेरो कीआ तुझहि किआ अरपउ नामु तेरा तुही चवर ढोलारे ॥३॥
दस अठा अठसठे चारे खाणी इहै वरतणि है सगल संसारे ॥
कहै रविदासु नामु तेरो आरती सति नामु है हरि भोग तुहारे ॥४॥३॥
अंग 694

अर्थ: "(हे मुरारी ! तेरा नाम ही असली आरती है। तेरा नाम ही सच्चा स्नान और तीर्थ है। हरी के नाम के बिना सारे कर्म झूठे, फोकट और व्यर्थ हैं। हे परमात्मा ! तेरा नाम ही पवित्र आसन है, तेरा नाम ही उरसा यानि चँदन घुमाने वाला पत्थर और तेरा नाम ही केसर है, जिसका मैं छिँटा देता हूँ। तेरा नाम ही पवित्र जल है, तेरा नाम ही चँदन है। तेरे नाम का सिमरन करना ही चँदन घिसकर तूझे चड़ाना है। तेरा पवित्र नाम ही दीपक है। नाम ही बाती है। तेरे नाम का ही दीपक में तेल डाला है। तेरे नाम की ही जोत से दीपक रोशन किया है। जिस कारण सारे भवनों में प्रकाश हो गया है और अभिमान रूपी अन्धेरा नहीं रहा। तेरा नाम ही धागा है। तेरे नाम रूपी फूल पिरोकर माला गूँथी है, क्योंकि फूल तो भौरें ने झूठे कर दिए हैं, इसलिए तेरा पवित्र नाम ही तेरे लायक है। आपकी दी हुई वस्तुएँ आप ही को क्या भेंट करूँ ? तभी तेरे नाम का पवित्र चौहर (चँवर) तेरे सीस पर झूलता है। चारों खाणियाँ यानि अण्डज, जेरज, सेतज और उतभुज से पैदा हुए सँसार में 18 पुराणों की विधि के मुताबिक, 18 तीर्थों पर जाकर लोग दीपक, फूल आदि भेंट करके तेरी आरती करते हैं यानि कि लोग आपको आपकी ही दी हुई वस्तुएँ भेंट करके खुश करने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु रविदास तेरा नाम जपना और तेरे नाम की ही आरती को सच्ची आरती समझता है। बाकी सभी आरतियाँ फोकट और जगत दिखावा है। हे परमात्मा जी ! मैंने आपको आपके नाम का ही भोग लगाना ठीक माना है।)" शरीरक बाहरी मैल धोने से मन पवित्र नहीं होता, मन के पवित्र होने से लोक-परलोक में जस फैलता है और जीव नीच से ऊँच बन जाता है। जिन्होंने तूझे मन में रखा, तूँ उनके दिल में दिन-रात बसता है और सभी इच्छाएँ पूरी करता है। अगर अन्दर सच्चा प्यार और श्रद्धा हो तो तूँ वश में होता है, परन्तु भेखी ब्राहम्ण धर्म की चादर ओड़कर पर्दे के पीछे पाप कमाते हैं यानि हाथ में दीपक लेकर अँधे कुँओं में छलाँग लगाते हैं। हे माधव ! मैं तो केवल हूँ ही आपका। किसी को धन का मान है, किसी को कुल का मान है किसी को विद्यवत्ता का मान है। हे प्राणपति जी ! अब आओ और रविदास जी को कण्ठ से लगाकर निहाल करो और इन भूलक्कड़ जीवों को अपना कौतक दिखाकर सत्य मार्ग पर लाओ। मन के अन्दर, कुछ शक्ति देखकर जरूर विश्वास आ जाएगा।
ठाकुर जी का नदी से बाहर आना : जब भक्त रविदास जी ने परमात्मा की सच्ची आरती की तो परमात्मा बड़े प्रसन्न हुए और तैरते-तैरते भक्त रविदास जी के पास आ गए। भक्त रविदास जी की जय-जयकार से आसमान गूँज उठा। रविदास जी ने सत्कार के साथ ठाकुर जी को रेश्मी रूमाल में लपेटकर सिहाँसन पर बिठाया और "राग गोंड" में बाणी उच्चारण की–

मुकंद मुकंद जपहु संसार ॥ बिनु मुकंद तनु होइ अउहार ॥
सोई मुकंदु मुकति का दाता ॥ सोई मुकंदु हमरा पित माता ॥१॥
जीवत मुकंदे मरत मुकंदे ॥ ता के सेवक कउ सदा अनंदे ॥१॥ रहाउ ॥
मुकंद मुकंद हमारे प्रानं ॥ जपि मुकंद मसतकि नीसानं ॥
सेव मुकंद करै बैरागी ॥ सोई मुकंदु दुर्बल धनु लाधी ॥२॥
एकु मुकंदु करै उपकारु ॥ हमरा कहा करै संसारु ॥
मेटी जाति हूए दरबारि ॥ तुही मुकंद जोग जुग तारि ॥३॥
उपजिओ गिआनु हूआ परगास ॥ करि किरपा लीने कीट दास ॥
कहु रविदास अब त्रिसना चूकी ॥ जपि मुकंद सेवा ताहू की ॥४॥१॥  अंग 875

अर्थ: "(रविदास जी सभी के सामने राम नाम का उपदेश देते हुए कहते हैं- ऐ दुनियाँ वालों ! मुकंद यानि मुक्ति देने वाले का जाप मन लगाकर करो। सिमरन के बिना आपका हीरे जैसा जन्म चौरासी लाख जूनों में फिर-फिरकर अवगुण यानि नाश हो जाएगा। केवल मुक्ति का मालिक वह परमात्मा ही है। वो ईश्वर अपने प्यारों से माता-पिता वाला व्यवहार करता है। हमको जीते हुए भी परमात्मा का जाप और मरने के समय भी उसका ही ध्यान करना चाहिए। उसका नाम जपने वाले सेवकों को सदा आनंद ही मिलता है यानि वो मालिक की रजा में ही खुश रहते हैं, चिन्तातुर नहीं होते। राम नाम का जाप करना हमारे प्राण हैं। राम नाम का सिमरन करने से माथे के भाग्य जाग जाते हैं। जो दिल में वैराग्य धारण करके प्रभू की सेवा करता है, परमात्मा उस कमजोर और कँगाल जैसे जीव को नाम रूपी खजाने की खान दे देता है। परमात्मा हमारी सदा सहायता करता है। दुनियाँ के लोग हमारा क्या बिगाड़ सकते हैं। हम जात-पात के बंधनों को तोड़कर परमात्मा के दरबार के निकटवर्ती सेवक बन गए हैं। हे परमात्मा ! तूँ ही युगों युगाँतर से हमें तारने वाला है। हमारे दिल में ज्ञान पैदा हुआ तो उसके नूर का प्रकाश हो गया और परमात्मा ने किरपा करके कीड़े जैसे गरीब को अपना दास बना लिया है। रविदास जी कहते हैं कि अब हमारे मन में सारी तृष्णा खत्म हो गई है। हम केवल परमात्मा को ही जपते हैं और उसी की ही सेवा करते हैं यानि कि हम किसी के भी मोहताज नहीं।)"

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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