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18. ब्राहम्णों का फिर से एकत्रित होना

रविदास जी की आयु जब 39 साल की थी तब उनके माता और पिता का देहान्त एक साथ हुआ। कहते हैं कि अच्छे मनुष्यों को मौत भी शान्ति से प्राप्त होती है। मामूली सी बुखार की शिकायत हुई और यह जोड़ा बैकुण्ठ धाम को कूच कर गया। भक्त जी ने सारी बिरादरी को बुलाया और गँगा में स्नान कराया और वहीं किनारे पर ही विधि अनुसार ही अन्तिम सँस्कार कर दिया और सारे सँस्कार हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुकुल ही किए। इस कार्य से ब्राहम्ण जल उठे। काशी का रहने वाला “पीरांदिता“ मरासी भी जलभून उठा। उसने ब्राहम्णों को साथ लेकर बड़ा हल्ला-गुल्ला किया और रविदास जी को राजदण्ड दिलवाने की योजनाएँ बनाने लगा। उसने सबसे कहा कि: देखो भाईयों ! हमारे धर्म में इस नीच चमार को दखल देने का कोई हक नहीं। अगर राजा “नागरमल“ इसको मजहब की तौहीन की सजा न दे, तो हम उसके दरवाजे के आगे भुख हड़ताल करके प्राण त्याग देंगे। सभी लोग एकत्रित होकर रविदास जी के पास पहुँचे और कहने लगे: देखो रविदास ! एक तो ब्राहम्णों का भेष बनाना, दूसरा ठाकुर की पूजा और तीसरा काम लोगों से नमस्कार, आदर आदि लेना बँद कर दे तो भली है, नहीं तो फसाद बढ़ने का खतरा है। भक्त रविदास जी बोले कि: महाश्यों ! परमात्मा ने सबको पैदा किया है इसलिए उसकी पूजा करनी और नाम जपने की सभी को खुली स्वतँत्रता है। तुम धर्म के ठेकेदार बनते हो, उस परमात्मा ने अपनी कुदरत को बाँटा है और चींटी से लेकर हाथी तक सबको एक जैसी आत्मा दी है। बाकी जो नीचता-ऊँचता की बात करते हो तो अपने से बड़ों को देखा जिन्होंने शास्त्र आदि बनाए हैं। उनका जीवन क्या था और किस कुल में जन्म लेकर क्या कर्म करते रहे हैं। मैं तो उस पवित्र परमात्मा के नाम का जपन करता हूँ। इसके बदले अगर मुझे अपने प्राणों की आहूति भी देनी पड़े तो कोई चिन्ता की बात नही है। आप चाहे नागरमल के दरबार में मेरी शिकायत कर दो परन्तु मैं ठाकुर की पूजा यानि नाम जपना नहीं छोड़ सकता। हरी का सिमरन कई जन्मों के पापों को दूर करके मनुष्य को आवागमन यानि कि जन्म-मरण के चक्रव्यूह से बचाता है। इसलिए उसका नाम छोड़ने से पहले अगर शरीर ही छुट जाए तो मेरे धन्य भाग्य। यह कहकर रविदास जी ने "राग आसा" में बाणी गायन की:

हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरे ॥
हरि सिमरत जन गए निसतरि तरे ॥१॥ रहाउ ॥
हरि के नाम कबीर उजागर ॥
जनम जनम के काटे कागर ॥१॥
निमत नामदेउ दूधु पीआइआ ॥
तउ जग जनम संकट नही आइआ ॥२॥
जन रविदास राम रंगि राता ॥
इउ गुर परसादि नरक नही जाता ॥३॥५॥ अंग 487

अर्थ: "(हे भ्रमित जनों ! परमात्मा जी के नाम की महिमा है कि जिन्होंने शुद्ध मन से एकमिक होकर हरि जी का सिमरन किया, उनके सूखे हुए कर्म हरे भरे हो गए हैं। हरि के जाप ने निसतरी (जो कभी भी नहीं तर सकते थे) तार दिए हैं। हरि सिमरन करने से कबीर जुलाहा, दुनियाँ में उजागर यानि मशहूर हो गया और जन्म-मरण के हिसाब के लेखे फाड़ दिए। नामदेव छींबा का दुध परमात्मा ने प्रकट होकर पीया और वह जन्म-मरण के सँकट यानि दुख से छूट गया। इसलिए हरि का दास रविदास राम के नाम से रँगा गया है। राजदण्ड तो क्या मैंने तो गुरू की किरपा से नर्क दण्ड से भी बच जाना है।)"

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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