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16. जात पात का भ्रम दूर करना

एक दिन चमार बिरादरी के कई लोग रविदास जी के दरबार में बैठे हुए थे, सतसंग चल रहा था। एक श्रद्धालू ने विनती की, हे दीनानाथ जी ! ऊँची जातों वाले हमसे घृणा करते हैं और हमसे दूर भागते हैं। परमात्मा की दरगह में तो सबको बराबर माना जाता है, फिर हमारे साथ यहाँ पर ऐसा बर्ताव क्यों किया जाता है ? यह विनती सुनकर रविदास जी वैराग्य में आ गए और "राग बिलावल" में यह बाणी उच्चारण की:

बिलावलु ॥
जिह कुल साधु बैसनौ होइ ॥
बरन अबरन रंकु नही ईसुरु बिमल बासु जानीऐ जगि सोइ ॥१॥ रहाउ ॥
ब्रह्मन बैस सूद अरु ख्यत्री डोम चंडार मलेछ मन सोइ ॥
होइ पुनीत भगवंत भजन ते आपु तारि तारे कुल दोइ ॥१॥
धंनि सु गाउ धंनि सो ठाउ धंनि पुनीत कुट्मब सभ लोइ ॥
जिनि पीआ सार रसु तजे आन रस होइ रस मगन डारे बिखु खोइ ॥२॥
पंडित सूर छत्रपति राजा भगत बराबरि अउरु न कोइ ॥
जैसे पुरैन पात रहै जल समीप भनि रविदास जनमे जगि ओइ ॥३॥२॥ अंग 858

अर्थ: "(जिस कुल में भक्ति करने वाला साधु हो, चाहे वह किसी भी जाति का हो, वह जाति या कुल कभी भी कँगाल नहीं होती। वह ईश्वर के रूप को पहचानकर यानि नाम धन पाकर धनी बन जाती है, वह दुनियाँ में अच्छी कामना वाला गिना जाता है। ब्राहम्ण, वैश्य, क्षत्रिय, शुद्र, डूम, चण्डाल, मलेछ आदि कोई भी हो। वह परमात्मा का नाम जपने के कारण पुनीत यानि बड़ा हो सकता है। वह आप भी तरता है और कुलों को भी तार लेता है। अथवा नानके, दादके, दोनों खानदानों के नाम को ऊजवल कर देता है। जिस नगर में नाम जपने वाला साधु पैदा होता है वह नगर धन्य है, जिस स्थान पर रहता है, वह स्थान भी धन्य है। उस भाग्यशाली परिवार के लोग भी धन्य हैं, जिनके घर में भक्त ने जन्म लिया है। जिसने नाम रस पीया उसने दुनियाँ के सारे फीके रस छोड़ दिए हैं और नाम रस में मगन होकर विषय-विकार त्याग दिए यानि दूर फैंक दिया है। पण्डित, सूरमा, तखत का मालिक राजा, यह सारे भक्ति करने वाले दर्जे पर नहीं पहुँच सकते। यानि इनका बल चँद दिन अपने सिर के साथ ही है। परमात्मा की दरगह में कोई इन्हें पहचानता भी नहीं है, जहाँ भक्त के मुख ऊजल होते हैं। जिस प्रकार कमल का फूल पानी में रहते हुए भी पानी में लोप नहीं होता। इसी प्रकार से भक्त भी सँसार में रहते हुए भी सँसारी कर्मों से निरलेप रहते हैं। रविदास जी कहते हैं कि जगत में जन्म लेना ही उनका सफल है। बाकी अहँकार में आए और खाली हाथ झाड़कर चले गए।)" रविदास जी की इस बाणी का उपदेश सुनकर सारे सेवक खुशी से झूम उठे और धन्य रविदास जी ! धन्य रविदास जी ! कहने लगे। सेवकों ने कहा, हे भक्त जी ! आपने हमारी जाति में जन्म लेकर हम नीचों को भी ऊँचा उठा दिया है। आप जी की सँगत करके चमार जाति भी पूजने योग्य हो गई है। जब तक सँसार कायम रहेगा हमारी जाति का नाम भी रोशन रहेगा। सेवकों की यह बात सुनकर रविदास जी ने "राग आसा" में यह बाणी उच्चारण की:

आसा ॥
तुम चंदन हम इरंड बापुरे संगि तुमारे बासा ॥
नीच रूख ते ऊच भए है गंध सुगंध निवासा ॥१॥
माधउ सतसंगति सरनि तुम्हारी ॥
हम अउगन तुम्ह उपकारी ॥१॥ रहाउ ॥
तुम मखतूल सुपेद सपीअल हम बपुरे जस कीरा ॥
सतसंगति मिलि रहीऐ माधउ जैसे मधुप मखीरा ॥२॥
जाती ओछा पाती ओछा ओछा जनमु हमारा ॥
राजा राम की सेव न कीनी कहि रविदास चमारा ॥३॥३॥ अंग 486

अर्थ: "(रविदास जी सेवकों को नीच से ऊँच होने का दृष्टांत देते हैं– हे करतार ! आपका पवित्र नाम चँदन की तरह है और हम कुकर्मी इरँड की तरह बे-गुण हैं, परन्तु आपके साथ हमेशा प्यार है। इसलिए नीच रूख यानि वृक्ष से ऊँच हो गए हैं, आपकी पवित्र सुगँधी ने हमारी गँदी वासना को निकाल दिया है और अब वह हमारे में शुभ गुणों की सहायक बन गई है। हे पातशाह ! हम तेरी सदा कायम रहने वाली सतसंगत की शरण में आए हैं, हम अवगुणों से भरे हुए हैं और आप परोपकारी हो। हे गुसाँईं ! आप रेश्मी दुशाले की तरह पवित्र हो और सफेद, पीले सुन्दर रँगों वाले हो और हम बेचारे कीड़े ही तरह हैं और कीड़ा उसको टुकता है यानि कि हम भुलक्कड़ हैं और आप दयाल और बखसिँद हो। तेरी सँगत से यानि कि तेरे नाम से हम ऐसे मिले हुए हैं, जैसे शहद से मक्खी चिपकी होती है। मेरी जात भी बूरी है, सँगत भी बूरी है और जन्म भी बूरे और नीच घर का है। रविदास जी कहते हैं कि हे राम जी ! सँसार के सच्चे पातशाह, मैंने आपकी सेवा कुछ भी नहीं की, परन्तु आपने मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझे निवाज लिया है।)"

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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