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15. परमात्मा ने पुनः दर्शन देने

जब रविदास जी ने जूते बनाने का कार्य करना बँद कर दिया तो काशी में ब्राहम्णों ने घर-घर में यह चर्चा फैला दी कि रविदास चमार ने साहूकारों का कर्ज खाकर अपना दिवाला निकाल दिया है। कामकाज छोड़कर लोगों से पूजा के बहाने सामाग्री एकत्रित करने की योजनाएँ बनाता है। इस नीच के पीछे लगने वाले लोग भी नर्क के भागी बनेंगे। वेदों में शुद्र को भक्ति करने का हक नहीं है। यह तो आप ही वेदों से बेमुख है और दुनियाँ को भी कुराहे पर डाल रहा है। इसलिए रविदास राजदण्ड का भागी है, जो भी इसके पीछे लगेगा, उसको भी राजदण्ड दिलवाया जाएगा। ब्राहम्णों का काम केवल ब्राहम्ण ही कर सकता है। रविदास का जनेऊ पहनना, तिलक लगाना और ठाकुर की पूजा करनी और नाम जपना केवल ठगी है। रविदास जी अपनी निन्दा से घबराए नहीं, वह तो परमात्मा का नाम जपने में मस्त रहे। परमात्मा ने उन्हें एक बार फिर दर्शन दिए और कहा– जो लोग मेरे भक्तों की निन्दा करते हैं, वह मुझे बिल्कुल भी नहीं भाते और जो लोग मेरे दास का दास बनकर सिमरन करता है, वह मुझे पसँद है और वह मेरा पुत्र है और मैं उनका पिता हूँ। जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के मोह में दौड़ी चली आती है, वैसे ही मैं अपने भक्तों के प्यार के कारण उनके पास आ जाता हूँ। जिस भक्त के दिल और मन से “मैं“ मिट जाती है, वह मेरा रूप हो जाता है और उसकी शोभा दोनों लोक करते हैं। जिस प्रकार से उदास पुत्र बिछड़े हुए पिता का दर्शन करके प्रसन्न हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से रविदास जी भी परमात्मा का दर्शन करके प्रसन्न हो उठे और "राग सोरठि" में यह बाणी उच्चारण की:

जब हम होते तब तू नाही अब तूही मै नाही ॥
अनल अगम जैसे लहरि मइ ओदधि जल केवल जल मांही ॥१॥
माधवे किआ कहीऐ भ्रमु ऐसा ॥
जैसा मानीऐ होइ न तैसा ॥१॥ रहाउ ॥
नरपति एकु सिंघासनि सोइआ सुपने भइआ भिखारी ॥
अछत राज बिछुरत दुखु पाइआ सो गति भई हमारी ॥२॥
राज भुइअंग प्रसंग जैसे हहि अब कछु मरमु जनाइआ ॥
अनिक कटक जैसे भूलि परे अब कहते कहनु न आइआ ॥३॥
सरबे एकु अनेकै सुआमी सभ घट भुगवै सोई ॥
कहि रविदास हाथ पै नेरै सहजे होइ सु होई ॥४॥१॥ अंग 657

अर्थ: "(हे परमात्मा ! जब मेरे में अहँकार था, तब तूँ मेरे अन्दर नहीं बसता था, जब तूँ मेरे अन्दर बस गया तो मेरे अन्दर अहँकार मिट गया है। जिस प्रकार समुद्र में पवन के वेग से बेअंत लहरें उठती हैं जो अलग-अलग दिखाई देती हैं, परन्तु जल का ही रूप होती हैं। वैसे ही आप और मैं एकमिक हैं। हे माधो ! अपने भ्रम की क्या बात करें, जैसा मन में सोचें वैसा नहीं होता। जिस प्रकार एक राजा बिस्तर पर सोया हुआ सपने में एक फकीर बन जाता है। राज होते हुए भी राजहीन होकर दुख पाता है, वैसे ही मन में सब कुछ होते हुए भी हम घक्के खा रहे हैं। जैसे अन्धेरे में रस्सी साँप प्रतीत होती है, वैसे ही हमारे भ्रम का प्रसँग हमें भरमा रहा है पर अब कुछ गुरू ने किरपा करके भेद खोल दिया है। जिस प्रकार से एक सोने के अनेक प्रकार के गहने या कँगन बनते हैं, परन्तु सारे सोने का ही रूप होते हैं। अब हमें समझकर जो आनन्द आया है वह कहा नहीं जा सकता। सभी स्थानों पर बसने वाला मालिक तो एक ही है, परन्तु अनेक रूपों में भोग कर रहा है। रविदास जी कहते हैं– हे गोबिन्द जी ! जिनके मन में से भ्रम मिट गया है, उनके हाथ की तली में शक्तियाँ खेलती हैं। भाव यह है कि तूँ उनको हाथ से भी नजदीक होकर मिलता है। जिस जीव की वासना मिट जाती है, वो जीव जीवन मुक्त हो जाता है।)" रविदास जी की गरीबी हालत पर अहँकारी लोग और रिशतेदार हँसने लगे और मजाक उड़ाने लगे। यह बात भी सही है कि आदमी की अपनी हालत खराब हो तो वह रोता है और दूसरे की हालत खराब हो तो उसे मसखरी सुझती है। रविदास जी ने "राग बिलावल" में अपनी बाणी में कहा है:

दारिदु देखि सभ को हसै ऐसी दसा हमारी ॥
असट दसा सिधि कर तलै सभ क्रिपा तुमारी ॥१॥
तू जानत मै किछु नही भव खंडन राम ॥
सगल जीअ सरनागती प्रभ पूरन काम ॥१॥ रहाउ ॥
जो तेरी सरनागता तिन नाही भारु ॥
ऊच नीच तुम ते तरे आलजु संसारु ॥२॥
कहि रविदास अकथ कथा बहु काइ करीजै ॥
जैसा तू तैसा तुही किआ उपमा दीजै ॥३॥१॥ अंग 858

अर्थ: "(हे परमात्मा ! हमारी हालत (गरीबी) देखकर सारे हँसते हैं। मेरे हाथ की तली पर अठारहाँ सिद्धियाँ हैं, यह सारी तेरी किरपा है, परन्तु यह लोग नहीं जानते। तूँ जानता है, मैं कुछ भी नहीं हूँ, तूँ निर्भय है, सारे डर दूर करने वाला है। हे राम ! सारे जीव तेरी शरण में आए हैं, सबकी आशा पूर्ण करो। जो जीव तेरे दर पर आ जाते हैं, उनको किसी का डर नहीं रहता। छोटे-बड़े सभी तेरे नाम से ही लगकर तरते हैं, तूने सबको अपने हुक्म की पक्की रस्सी से बाँधा हुआ है। हे ईश्वर ! तेरी कथा अकथ है, तेरा कोई अंत नहीं पा सकता। हम बहुत क्या कथन करें। तेरी जितनी शक्ति है यानि जैसा तूँ है, वैसा तो तूँ ही है और कोई भला क्या होगा, तेरे जैसा और कोई भी नहीं है। तूँ अपनी बड़ाई आप ही जानता है, हम तूझे कौनसा मान दें।)"

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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