14. औजार सोने के बन गए
भक्त जी एक दिन तड़के ही परमात्मा की जी अराधना में मस्त थे। तभी परमात्मा ने एक साधु
का रूप घरकर दर्शन दिए। किन्तु रविदास जी ने परमात्मा को पहचान लिया और वह वैराग्य
में आ गए और "राग सोरठि" में बाणी गायन करने लगे:
जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा ॥ जउ तुम चंद तउ हम भए है चकोरा
॥१॥
माधवे तुम न तोरहु तउ हम नही तोरहि ॥
तुम सिउ तोरि कवन सिउ जोरहि ॥१॥ रहाउ ॥
जउ तुम दीवरा तउ हम बाती ॥ जउ तुम तीर्थ तउ हम जाती ॥२॥
साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी ॥ तुम सिउ जोरि अवर संगि तोरी ॥३॥
जह जह जाउ तहा तेरी सेवा ॥ तुम सो ठाकुरु अउरु न देवा ॥४॥
तुमरे भजन कटहि जम फांसा ॥ भगति हेत गावै रविदासा ॥५॥५॥ अंग 658
अर्थ: "(इस शबद में रविदास जी परमात्मा के प्रति अपनी भक्ति और
प्रीत प्रकट करते हुए कहते हैं। हे माधो– अगर आप पहाड़ हैं, तो मैं आपका सुन्दर
स्वरूप देखकर नाचता हूँ। अगर आप चन्द्रमाँ का स्वरूप धारण करो, तो मैं चकोर बनकर
कुर्बान जाता हूँ। हे परमात्मा ! अगर आप अपने दिल से हमें ना भूलाओ भाव यह है कि
अगर आप प्यार ना तोड़ो तो भला हम किस प्रकार तोड़ सकते हैं। फिर आपसे प्रेम तोड़कर और
किससे प्रेम करेंगे। अगर आप दीपक बनो तो हम बाती बनकर आपमें समाए रहते हैं। अगर आप
तीर्थ का स्वरूप धारण करो तो हम यात्री बनकर पहुँच जाऐंगे। हमने सच्ची प्रीत आपके
साथ लगाई है और आपके साथ प्रेम करके दुनियाँ के अन्य लोगों से प्रेम तोड़ लिया है।
हे दाता ! मैं जहाँ-जहाँ भी जाता हूँ, वहाँ-वहाँ तेरी ही सेवा में स्वाद आता है।
क्योंकि तेरे जैसा कोई देवी-देवता नहीं है। तेरा नाम जपने से यमदूत की फाँसी कट जाती
है। इसलिए रविदास तेरी महिमा बड़े ही चाव से गाता है।)"
परमात्मा यह सुनकर बड़े ही खुश हुए और कहने लगे: रविदास ! तेरा
नाम सूरज की तरह जब तक दुनियाँ है, चमकता रहेगा। मैं तुझे मुँह माँगी माया देना
चाहता हूँ। ताकि आप घर में आए साधू संतों की मन, धन और वस्त्रों आदि से सेवा कर सको।
मैं तुम्हें पारस देना चाहता हूँ। जब भी धन की आवश्यकता हो, किसी भी लोहे की वस्तु
या लोहे से स्पर्श करवा देना तो वह सोने का बन जाएगा। रविदास जी ने कहा: हे जगत धनी
! माया मनुष्य के मन को आँधी की तरह उड़ा कर ले जाती है। चोर उच्चके माया की खातिर
लोगों का कत्ल भी करने से बाज नहीं आते। यह दुराचारिणी की तरह मन में घर कर लेती है
और नरक भोगने के लिए जिम्मेदार बनती है। मेरे पास आपका नाम ही सच्चा पारस है, जो
अवगुण रूपी लोहे को लाल बना देता है। आप बार-बार इसे लेकर मेरे पास क्यों आ जाते
हैं। रविदास जी का ऐसा जवाब सुनकर परमात्मा ने वह पारस का पत्थर जूते बनाने के औजारों
की टोकरी में फैंक दिया, जिससे उनके लोहे के सारे औजार सोने के बन गए। इस प्रकार यह
अचरज कौतक करके परमात्मा जी अलोप हो गए। अब रविदास जी ने सोचा कि अब मैं इनसे जूते
बनाने का कार्य कैसे करूँगा। वह सोचने लगे कि लगता है परमात्मा को मेरे जूते बनाने
का कार्य स्वीकार नहीं है, तो मैं इसका भी त्याग कर देता हूँ। रविदास जी अब अपनी
पत्नी समेत ठाकुर जी की पूजा में लीन हो गए और दुकान का काम बँद कर दिया। ग्राहक
दुकान से हो होकर घर पर आते और जूतों का काम त्याग देने का कारण पूछते। एक दिन बहुत
सारे लोग दर्शन के लिए आए तो ज्ञान गोष्टि के बाद एक श्रद्धालू ने पूछा– भक्त ! जी
मेरी जूती टूटी हूई है। आपने किस दिन दुकान खोलनी है, मैं आपके बिना किसी और से जूती
नहीं बनवाता। आपके अच्छे काम ने हमें आपका पक्का ग्राहक बना दिया है। तब रविदास जी
ने राग सोरठि में यह शबद उच्चारण किया:
चमरटा गांठि न जनई ॥ लोगु गठावै पनही ॥१॥ रहाउ ॥
आर नही जिह तोपउ ॥ नही रांबी ठाउ रोपउ ॥१॥
लोगु गंठि गंठि खरा बिगूचा ॥ हउ बिनु गांठे जाइ पहूचा ॥२॥
रविदासु जपै राम नामा ॥ मोहि जम सिउ नाही कामा ॥३॥७॥ अंग 659
अर्थ: "(हे भाई जनो ! रविदास चमार जुते बनाने का काम नहीं जानता।
लोग मेरे पास आ-आकर जूतें बनाने के लिए जोर देते हैं। मेरे पास आर भी नहीं है जिससे
में उसे सिलने का कार्य करूँ और ना ही मेरे पास रँबी या राँती है, जिससे चमड़ा छिलकर
ठीक करूँ। लोग जूते बनवाने यानि कि अच्छी कुलों में जन्म ले-लेकर भी उसके दरबार में
बेइज्जत हुए हैं और मे जूते बनाने के कारण भी परमात्मा के घर में दाखिल हो गया हूँ।
रविदास जी कहते हैं कि मैं राम नाम जपता हूँ इसलिए मेरा यमदूतों से कोई काम नहीं है
यानि कि मैं सँसार के कर्म छोड़कर परमात्मा का सेवक हो गया हूँ। मुझे जगत के धँधे अब
भरमा नहीं सकते।)"