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13. परमानँद बैरागी की परख

श्री रामानँद जी का एक चेला परमानँद भी था जो कि आपका गुरू भाई भी था। यह रविदास जी से गोष्टि करने के लिए आ गया। इसके मन में बहुत बड़ा अहँकार था कि मेरे जैसा बन्दगी करने वाला और कोई नहीं। यह रविदास जी की महिमा सुनकर कहा करता था कि रविदास चमार ने क्या भक्ति करनी है। पाखण्ड करके सँसार को ठग रहा है। मैं इसको आज ही परख लेता हूँ। मेरे सामने कोई नहीं ठहर सकता। इस अहँकार में वह थाल लेकर उसमें कुछ मनके और मोती आदि डालकर उस पर रूमाल डाल दिया और रविदास जी के पास आया। रविदास जी ने उसका स्वागत किया और घर में अपने गुरू भाई के आने का धन्यवाद किया। परमानँद ने कहा: भक्त जी ! आपकी गरीबी पर मुझे बड़ी दया आई है। इसलिए मैं मोतियों का थाल आपको भेंट करने के लिए आया हूँ। किरपा करके इसे स्वीकार करें। रविदास जी हँस पड़े और बोले: परमानँद जी ! सारी आयु जोग कमाते निकल गई परन्तु माया का मोह अभी तक नहीं निकला। यह मोह ही जन्म मरण के चक्कर में फँसाता है। आप अपनी यह माया किसी निर्धन गरीब को दे दो। हम अपने रँग में मस्त हैं। “माई माइआ छल ।। त्रिण की अगनि मेघ की छाइआ गोबिंद भजन बिनु हड़ का जलु ।।“ इसलिए इस जहरीली नागिन के डँक से बचकर रहना चाहिए। भक्त रविदास जी का इस प्रकार का शुद्ध उपदेश सुनकर परमानँद जी का अहँकार दूर हो गया और वह प्यार के साथ ज्ञान गोष्टि करके अपने डेरे की तरफ चला गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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