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12. सिद्धों के साथ सँवाद

भक्त रविदास जी उसतति सुनकर सिद्धों के मन में भी दर्शन करने की चाह पैदा हो गई। गोरखनाथ समेत सिद्ध-मण्डली तीर्थ यात्रा करती हुई काशीपुरी में पहुँची। भक्त रविदास जी के स्थान पर वह आदेश आदेश कहकर बैठ गए। गोरखनाथ ने परख करने के लिए अपने पैरों का एक पैला बनाने के लिए दिया। जब भक्त रविदास जी ने प्रेम के साथ बनाकर गोरखनाथ जी को दिया। तो गोरखनाथ ने अपने थैले का मुँह खोलकर कहा: भक्त रविदास जी ! आप घर से गरीब हैं, संत महात्मा काफी आते हैं, परन्तु सेवा करने की आप में इतनी समर्था नहीं दिखाई देती, आप उठकर मेरे पास आओ और झोली करो मैं हीरे जवाहरातों से भर देता हूँ और एक रसायन भी लो, जिससे ताँबे से सोना बनता है। मैं अपनी मण्डली समेत आपको कुछ दान देने के लिए आया हूँ। यह सुनकर भक्त रविदास जी हँस पड़े और कहने लगे: गोरखनाथ जी ! मुझे आपके पत्थर, कँकर की जरूरत नहीं है। जो अतिथियों के खान-पान का प्रबंध होता है, उसके लिए परमात्मा जी आप ही दे देते हैं। यह पत्थर तो आप ही सम्भालकर रखो। यह आपको ही शोभा देते हैं। घर बाहर त्यारकर भगवा वस्त्र पहनकर माया के पीछे भटकना यह संतों को शोभा नहीं देता। माया जैसे-जैसे बढ़ती है, वैसे-वैसे ही मनुष्य की तृष्णा ओर बढ़ती जाती है। माया के साथ प्यार करके मन सपने में भी शान्ति नहीं पा सकता। हे योगी जनो ! नाम रत्न जिसके भी पल्ले में है, दुनियाँ में वो ही सच्चा साहूकार है बाकी सारे जीव भिखारी कमीने हैं, जिनको ना तो दिन में सुख है और ना ही रात को नींद नसीब होती है, सुनो:

बिनु देखे उपजै नही आसा ॥ जो दीसै सो होइ बिनासा ॥
बरन सहित जो जापै नामु ॥ सो जोगी केवल निहकामु ॥१॥
परचै रामु रवै जउ कोई ॥ पारसु परसै दुबिधा न होई ॥१॥ रहाउ ॥
सो मुनि मन की दुबिधा खाइ ॥ बिनु दुआरे त्रै लोक समाइ ॥
मन का सुभाउ सभु कोई करै ॥ करता होइ सु अनभै रहै ॥२॥
फल कारन फूली बनराइ ॥ फलु लागा तब फूलु बिलाइ ॥
गिआनै कारन करम अभिआसु ॥ गिआनु भइआ तह करमह नासु ॥३॥
घ्रित कारन दधि मथै सइआन ॥ जीवत मुकत सदा निरबान ॥
कहि रविदास परम बैराग ॥ रिदै रामु की न जपसि अभाग ॥४॥१॥ अंग 1167

अर्थ: "(देखे बिना प्यार नहीं उपजता, बाकी जो कुछ दिखाई देता है, वह नाश होने वाला है। चारों वर्णों को बनाने वाले करतार का जो जीव दिखावा छोड़कर सिमरन करता है, सच्चा जोगी वो ही है, भाव यह है कि जिस प्रकार से परमात्मा ने चारों वर्णों पर अपनी रहमत की है, वैसे ही मनुष्य भी उसके द्वारा बनाए गए सभी मनुष्यों को मान की दृष्टि से देखे और उनमें कोई फर्क नहीं करे यानि कि ऊँच-नीच ना माने। क्योंकि जो ऐसा करता है, वह अहँकारी होता है। जो राम नाम के सिमरन को अपने मन में टिकाए तो वह इस प्रकार शुद्ध हो जाता है, जिस प्रकार से लोहा पारस के स्पर्श से सोना बन जाता है। फिर दुविधा उसको दुख नहीं दे सकती। असल मुनी वो ही तो है जिसने अपने मन में से दुविधा दूर कर ली है और हर एक जीव मात्र को हरि का रूप समझकर सम्मान देता है। वो परमात्मा तीनों लोकों में व्यापक है, उसका कोई स्थान नियत नहीं है, वह बिना दरवाजे के सभी स्थानों पर रहता है। जो मुनी इस बात को समझ जाता है, उसकी दुविधा मिट जाती है। मन के स्वभाव अनुसार सभी जीव कार्य कर रहे हैं, जो अपने मन को बस में कर लेता है, वो किसी से भी नहीं डरता, माँगता नहीं और हमेशा अडोल और निरभय रहता है। भक्त जन भक्ति करते समय जो कोई मूर्ति आदि चिन्ह सामने रखते है, तो मन को टिकाने के लिए अभ्यास करते हैं। वो चिन्ह को नहीं पूजते, जैसे कि फल लाने के लिए पौधे फुलते हैं पर जब फल लगते हैं तो फुल झड़ जाते हैं। ज्ञान को प्रकट करने के लिए किसी कर्म का अभ्यास करते हैं, जब ज्ञान हो जाता है, तो सारे कर्म छुट जाते हैं। समझदार स्त्री घी या मक्खन के लिए दुध रिड़कती है। जब घी यक मक्खन प्राप्त हो जाए तो रिड़कना छोड़ देती है। वैसे ही संत जन निरबाण पद (मुक्ति) को पाने के लिए कर्म करता है, जब परमात्मा की प्राप्ति हो जाए तो वो सारे कर्म छोड़कर परमात्मा का रूप हो जाता है। मौत का भय नहीं रहता। रविदास जी वैराग्य का बड़ा सुन्दर तरीका बताते हैं– हे अभागे जीव ! तुम क्यों नही अपने दिल में परमात्मा को बसाते।)"

यह शब्द सुनाकर भक्त रविदास जी ने सभी सिद्ध योगियों को अपने पास बुलाया, जब सारे पास आ गए तो आपने चमड़े काटने वाली राँती और कुण्डी और उठाया और कहा इसे देखो। सबने देखा तो उन्हें उसमें तीनों लोकों की माया तैरती हुई नजर आई, कई हीरे, जवाहरात, लाल, सोना, कई पारस आदि। भक्त रविदास जी ने कहा: हे सिद्धों ! आपको जो भी रत्न चाहिए वह ले लो। यह सब परमात्मा की लीला है। भक्त जन जिस मिट्टी पर हाथ डालें वह सोना हो जाती है। हरि के प्यारे तो पलक झपकते ही पत्थर के पहाड़ को भी पारस बना सकते हैं। परन्तु यह रिद्धियाँ-सिद्धियाँ तो भूलावे हैं, यह परमात्मा से दूर ले जाते हैं। इसलिए एक परमात्मा की ही भक्ति करो और सब कुछ फालतु काम छोड़ दो। श्री रविदास जी का यह पवित्र उपदेश सुनकर सारे योगी और सिद्ध उनके चरणों में गिर पड़े। कईयों ने तो मुन्दरीयाँ यानि कान की बालियाँ निकालकर नाम दान लेकर रविदास जी को सच्चा करतार का रूप समझकर तन, मन और धन अरपन कर दिया। किन्तु कुछ अहँकारी सिद्ध और योगी भी थे जो कि उनकी निन्दा करते कराते खाली हाथ गए।

नोट: यही तो बात है जो इन्सान का अगला पिछला किया गया सब कार्य खराब ओर व्यर्थ कर देती है और वह बात है– "अहँकार"। जैसे कि मैंने बहुत सेवा की, मैंने बहुत माला फेरी, मेरा जैसा कोई सेवा करने वाला नहीं है। मैं सभी सेवा करने वालों का कमाण्डर हूँ, मैं मुख्य सेवादार हूँ, मैंने बहुत दान किया है, मै बहुत त्यागी हूँ। यह सब अहँकार की बातें हैं, जो कि अगला पिछला किया गया सब कार्य व्यर्थ कर देता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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