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11. बैरागी होना और पारस पत्थर

पिता जी को उपदेश देकर भक्त रविदास जी का दिल वैराग्य में आ गया और वह सारे कामकाज छोड़कर जँगल में चले गए। कई दिन तक जँगल में परमात्मा के साथ नाम सिमरन में एकमिक हो गए। फिर जँगल से उठकर कपड़े फाड़कर काशीपुरी में गली-गली में घूमने लगे और जो मुँह में आ जाए बोलने लगे। कोई निन्दा करता, कोई तारीफ करता। उनके कट्टू वचन सुनकर भी कई सेवक बन गए। रविदास जी की इस परीक्षा में जो भी सेवक अडोल रहे, उनको साथ मिलाकर घर-घर में सतसंग की वारी प्रारम्भ कर दी। जो भी निश्चय करके दर्शन करने आए उसकी मनोकमाना पुरी होती, दुखियारे लोगों की दिन-रात दरवाजे पर भीड़ लगी रहे। जो घर की पूँजी थी वह भी सारी साधु-संतों में लूटा दी। तब सारी बिरादरी ने मिलकर रविदास जी को उनके कारोबार चलाने पर जोर डाला गया और साथ ही यह भी बोल दिया कि आप कामकाज करके भले ही साधु-संतों को भोजन खिलाओ। परन्तु पिता के दिल को इस प्रकार बिछोड़े में ना तड़पाओं। अपने परिवार में रहकर सबके मन को शान्त रखो। रविदास जी ने बिरादरी के मुखी बन्दों की विनती को स्वीकार कर लिया और अपनी दुकान पर पहले की तरह जूते बनाने का कार्य करने लगे। रविदास जी के पास जूते बनाकर बेचने से जो भी माया आती उससे अपने घर का खर्च और साधु संतों को भोजन खिलाते। परन्तु एक बार ऐसी हालत हो गई कि जो साधु आदि दशर्नों के लिए आते थे वह भी भूखे जाते थे। गरीबी ने रविदास जी का बहुत बूरा हाल कर दिया था। यह देखकर परमात्मा के मन में बड़ी दया आई वह एक साधू का रूप घरकर भक्त रविदास जी की दुकान पर आए, रविदास जी ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। रात को ठहरकर जब साधू सुबह जाने लगे तो उन्होंने रविदास जी से कहा कि आपकी हालत देखकर दया आती है, दर्शन करने आने वाले भी भूखे जाते हैं। मेरे पास एक पारस का पत्थर है जो लोहे को सोने का कर देता है। आप उससे सोना बनाकर उसे बेचकर घर पर आए हुए अतिथियों को खान-पान की सेवा कर लिया करो। दूसरे आपको कोई काम-काज करने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। गरीब लोग भोजन खाकर आपके गुण गाऐंगे।

साधू का उपदेश रविदास जी के दिल पर जरा भी नहीं टिका और बोले महात्मा जी मुझे इन पत्थरों की जरूरत नहीं है। मेरे पास परमात्मा के नाम का पारस है, जो जन्म-मरण के चक्कर से बचाकर बैकुण्ठ धाम तक पहुँचाता है। यह झूठे पदार्थ नरकों में फैंकते हैं। मेहनत करके कमाई गई माया अमृत है। मुफ्त की कमाई जहर है, जिसने भी इसे खाया मन विकारों से पिड़ित हो गया। इसलिए इस पारस के पत्थर को अपने झोले में तुरन्त वापिस डाल लो, ताकि मेरे रँग में भँग ना पड़ जाए। मैं अपने गुरूभाई भक्त कबीर जी की तरह ही दुख में ही सुख समझता हूँ। अब साधू ने भक्त रविदास जी को भरमाने के लिए पारस के पत्थर से उसकी जूती बनाने वाली लोहे की रँबी और सुई को सोने का बना दिया। यह देखकर भक्त रविदास जी ने उस साधू का मान तोड़ने के लिए सूत का धागा, जिससे वह जूते सीने का कार्य करते थे, अपने मुँह में लेकर उसे फेरा तो वह सोने का बन गया। यह देखकर साधू, भक्त रविदास जी अडोलता पर प्रसन्न हो उठा और धन्य रविदास ! धन्य रविदास ! बोलने लगा। इसके बाद वह साधू, भक्त रविदास जी से फिर से विनती करने लगा कि आप इस पारस के पत्थर को अपने पास अमानत के तौर पर रख लो। मैं तीर्थ यात्रा पर जा रहा हूँ और लौटते समय इसे आपसे ले लूँगा, क्योंकि यात्रा पर इसके गिर जाने या चोरी हो जाने का भय रहेगा। इसलिए मैं चाहता हूँ कि यह आप जैसे महापुरूष के पास ही सुरक्षित रहेगा, क्योंकि आपका मन कमल की तरह है जो कि कीचड़ में से बच निकला है।

भक्त रविदास जी ने अमानत वाली बात सुनकर कहा कि यह आपका ही घर है आप चाहे जहाँ पर इस पत्थर को छोड़ दो, मुझे इस पत्थर से कोई मतलब नहीं है और आप जहाँ पर इसे रखेंगे वहीं से आप ले लेना। मैं इसकी रक्षा की जिम्मेदारी जरूर लूँगा, परन्तु आप इसे वापिस आकर जरूर ले जाना। उस साधू ने घर में एक स्थान पर उस पारस के पत्थर को रख दिया और सत्य करतार कहता हुआ उनके घर से बाहर निकल कर अलोप हो गया। भक्त रविदास जी ने काँच और कँचन को एक समान मानकर दुनियाँ के सामने एक अदभुत मिसाल पेश की है। ऐसा कोई विरला ही होगा जो घर पर मुफ्त में आई हुई माया को छोड़ दे। माया के आगे तो बड़े-बड़े महात्मा भी नाचते हुए देखे जा सकते हैं। परन्तु भक्त रविदास जी ने एक बार भी उस पत्थर की और निगाह डालकर नहीं देखा और जूते सीने में मस्त रहे और उसको अमानत समझकर उसकी राखी करते रहे कि कहीं साधू महात्मा की अमानत में खियानत ना हो जाए। इस प्रकार से तीन महीने गुजर गए। कभी-कभी तो ऐसा भी समय आया कि भक्त रविदास जी पेट से भूखे भी रहे, परन्तु उन्होंने उस पारस के पत्थर को हाथ भी नहीं लगाया। कौनसा सा दिल है जो इस साखी को पढ़कर आपके चरणों में अपनी नाक रगड़ने को तैयार ना हो। परमात्मा अपने प्यारे भक्त की परीक्षा लेने के लिए फिर से उनके घर पर उसी साधू के भेष में आ गए। भक्त रविदास जी ने उनका स्वागत किया और आसन पर बिठाया। साधु ने अपनी अमानत वह पारस का पत्थर देने के लिए कहा। भक्त रविदास जी ने हँसकर कहा- महात्मा जी ! आप जिस स्थान पर रखकर गए थे वह वहीं होगा, मैंने उसे तो देखा भी नहीं, क्योंकि कहीं मेरे मन में विकार ना उत्पन्न हो जाए। आपने बड़ी कृपा की जो इसे लेने आ गए हो। परमात्मा भक्त रविदास जी के त्याग की हद देखकर बड़े हैरान हुए और अपने हाथ से पारस पत्थर लेकर चलते बने, परन्तु जाते-जाते गुप्त रूप में जहाँ पर भक्त रविदास जी नित ठाकुर की पूजा करते थे उस आसन के नीचे पाँच सोने की अशरफियाँ यानि मोहरें छोड़ गए। जब सुबह भक्त रविदास जी ने स्नान आदि करने के बाद आसन झाड़ा तो पाँच सोने की मोहरें निकल पड़ी। यह कौतक देखकर वह बड़े ही हैरान हुए और सोचकर फैसला किया कि यह ठाकुर जी भी अब माया के जाल में फँसने लग पड़े हैं। इनकी पूजा त्याग देनी ही ठीक है।

ना रहेगा बाँस ना बजेगी बाँसुरी। ना बजावे काहन ना नाचेगी राधिका। इसी ख्याल से आपने ठाकुर जी की पूजा त्याग दी और नितनेम कर फिर अपने काम-काज में जुट गए। रात को जब भक्त रविदास जी सोए तो परमात्मा ने उन्हें सपने में दर्शन दिए और कहा कि हमने आपकी कई प्रकार से परीक्षा ली, परन्तु आपके मन को नहीं तोड़ सके। हम ही आपको साधू के रूप में पारस देने के लिए आए थे और हमने ही तुम्हारे आसन के नीचे पाँच मोहरें रखी थी। पर आपने तो मेरी पूजा यानि नाम जपना ही त्याग दिया, यह तरीका तो ठीक नहीं हैं। जब लोग तुम्हारी भूखा-भूखा कहकर निन्दा करते हैं तो मेरे मन में बड़ी लज्जा आती है। इसलिए आप रोज पाँच मोहरे लेना स्वीकार करो, जिससे आप घर पर आए साधू संतों की सेवा कर सको, जिससे दुनियाँ में मेरी और तेरी कीर्ति बड़े। भूखे पेट हो तो कोई भी काम नहीं होता। शरीर को हठ करके दुख देना भी पापों में शामिल है। अगर तुमने पहले मेरी भक्ति करनी है तो मेरी ओर से भेजी गई माया भी स्वीकार कर, तब मेरी खुशी तेरे और तेरे सेवकों पर भरपूर रहेगी। परमात्मा जी का यह बचन सुनकर रविदास जी ने हाथ जोड़कर नम्रता से कहा? हे दीना नाथ ! माया के जाल में फँसाकर मुझे अपने चरणों से दूर नहीं करना और आगे आपका जो हुक्म है, वैसे ही किया जाएगा। रविदास जी की स्वीकार्यता से परमात्मा जी बड़े प्रसन्न हुए और रोज पाँच मोहरें आसन के नीचे से मिलने का वरदान दिया। श्री रविदास जी अब रोज भण्डारा बरताने की योजना के अनुसार पाँच मोहरें बेचकर रसद ले आते और जो भी अतिथी, फकीर, संत और साधू आता उसकी इच्छा अनुसार दान देने लग गए और भोजन करवाने लग गए। भूखे को रोटी और नXगे को कपड़ा आदि देते। भक्त रविदास जी की करामातें सुनकर रोज कई साधू संत उनके दर्शन करने के लिए आते और उपदेश लेकर घरों को जाते। राही और मुसाफिर भोजन खा-खाकर धन्य रविदास ! धन्य रविदास जी रास्ते भर गाते फिरते। जो एक बार दर्शन कर लेता उसका जीवन ही सँवर जाता।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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