99. श्री ग्रन्थ साहिब जी को गुरू पदवी
देना
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के आदेश पर तुरन्त दीवान सजाया गया। उस समय गुरू जी से
गुरू परम्परा के आगे बढ़ने के संबंध में पूछा गया। गुरू जी ने वहा एकत्रित शोकाकुल
संगत को साँत्वना देते हुए समझाया कि जैसे मनुष्य की मृत्यु के बाद भी उसकी आत्मा
बनी रहती है, ठीक वैसे ही गुरूजनों के जाने के बाद भी उनकी पावन बाणी उनकी आत्मा के
रूप में हमारे पास विद्यमान है। भविष्य में खालसे को उसी बाणी से दिशा-निर्देश
प्राप्त करने हैं और शब्द गुरू को पहचानना है। इस प्रकार गुरू जी ने उसी समय दमदमे
वाली श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी की पोथी को प्रकाश करने का आदेश दिया। स्वयँ बहुत
धैर्य के साथ अपने निवास में गये। उन्होंने साफ-सुथरी और सुन्दर पोशाक धारण की,
लौटकर श्री ग्रन्थ साहिब जी के सम्मुख खड़े होकर सभी संगत में सम्मिलित होकर
अकालपुरख (परमात्मा) को सम्बोधन करके अरदास की और श्री ग्रन्थ साहिब जी को दण्डवत
प्रणाम किया। तदपश्चात गुरू परम्परा अनुसार श्री ग्रन्थ साहिब जी की चार परिक्रमा
की और कुछ सामग्री एक थाल में रखकर श्री ग्रन्थ साहिब जी को भेंट की। इस प्रकार सभी
विधिवत गुरू मर्यादा सम्पूर्ण करते हुए उन्होंने गुरू पदवी श्री ग्रन्थ साहिब जी को
दे दी। इस प्रकार श्री ग्रन्थ साहिब जी को गुरूआई प्रदान कर दी गई और आदेश दिया कि
आज के बाद देहधारी गुरू की परम्परा समाप्त की जाती है। कुछ सिक्खों ने गुरू जी से
प्रश्न किया कि यदि आपके दर्शनों की अभिलाषा हो तो कैसे किये जायें ? गुरू जी ने
स्पष्ट किया कि मेरी आत्मा श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में और शरीर खालसा पँथ में
विद्यमान रहेगा। किन्तु सिक्खों ने कुछ और विस्तृत जानने के लिए अन्य प्रश्न किये।
एक सिक्ख ने प्रश्न किया कि सदैव पँथ के दशर्न कर पाना कठिन कार्य है क्योंकि
विपत्तियों में खालसे का मिल बैठ पाना सम्भव नहीं लगता। ऐसे में आपके दर्शन कैसे
होंगे ? गुरू जी ने समाधान बताया, जहाँ विकट परिस्थितियाँ हो तो केवल पाँच प्यारों
के दर्शन मेरे दर्शन होंगे। यदि ऐसा भी सम्भव न हो तो स्वयँ तैयार होकर, पूर्ण
कँकार और दस्तार सजी हुई होनी चाहिए और दर्पण में स्वयँ को निहारना, मेरे दर्शन
होंगे। यदि किसी कारणवश हमारी आवश्यकता पड़े तो हमारे स्थान पर पाँच प्यारे रूप होकर
हमारा प्रतिनिधित्व करेंगे।