98. धनुर्विधा की प्रतियोगिता का आयोजन
एक दिन श्री नांदेड़ साहिब जी में गुरू जी का दरबार सजा हुआ था। तभी सम्राट उनसे अपने
वरिष्ठ अधिकारियों सहित मिलने आया। गुरू जी से कुछ अधिकारीगण अनुरोध करने लगे– हे
गुरू जी ! हमने आपकी तीरँदाजी की बहुत महिमा सुनी है। हमें प्रत्यक्ष यह करतब
दिखाकर कृतार्थ करें। गुरू जी ने उनका अनुरोध स्वीकार करते हुए एक विशाल प्रतियोगिता
के आयोजन की घोषणा करवा दी कि जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के योद्धाओं को धनुर्विधा
के जौहर दिखाने का शुभ अवसर प्रदान किया जाएगा। बस फिर क्या था। स्थानीय प्रशासन की
तरफ से कुछ अच्छे तीरँदाजों को भेजा गया। कुछ आसपास के क्षेत्रों से आदिवासी भी आये।
कुछ सम्राट की सैनिक टुकड़ियों के जवान भी इस प्रतियोगिता में भाग लेने आये। गुरू जी
ने एक विशाल मैदान में निशानदेही करवा दी और लक्ष्य भेदने के लिए कठपुतलियाँ
निश्चित दूरी पर रखवा दीं। निश्चित समय प्रतियोगिता प्रारम्भ हुई किन्तु दूर के
लक्ष्य को भेदने में सभी असफल हुए। अन्त में गुरू जी ने दूर के लक्ष्य को भेदकर सभी
की जिज्ञासा शान्त कर दी। इस प्रतियोगिता में बहुत से बाण चालकों को पुरस्कृत किया
गया जिसमें स्थानीय शासक फिरोजखान की सेना के दो जवान भी थे। इनके तीर लक्ष्य से
लगभग निकट ही गिर रहे थे। गुरू जी इन पर बहुत प्रसन्न हूए और इनको पाँच-पाँच सौ
र्स्वण मुद्राएँ प्रदान कीं और उनका परिचय प्राप्त किया। इन दोनों सैनिकों ने गुरू
जी को बताया कि वह आपस में भाई हैं जो कि पँजाब के पठान कबीलों से हैं। यह सब गुरू
जी के निकटवर्ती सिक्खों को भला नहीं लगा। भाई दया सिंघ जी ने गुरू जी को सर्तक किया
कि यह शत्रु पक्ष के व्यक्ति हैं, कभी भी अनिष्ट कर सकते हैं। आप इनकों बढ़ावा न
दें। परन्तु गुरू जी ने उत्तर दिया। सब कुछ उस प्रभु के नियम के अनुसार ही होता है।
हम विद्याता के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते, बस यही हमारा विश्वास है। एक दिन स्थानीय प्रशासन ने बकरीद के त्यौहार पर शस्त्र विद्या
की प्रतियोगिता का आयोजन किया। जिसमें वो ही दोनों पठान भाई विजयी हुए। इन दोनों के
प्रतिद्वन्द्वियों ने जो कि इनसे बहुत ईर्ष्या करते थे, स्थानीय सैनिकों के साथ
मिलकर इन दोनों पर बहुत भद्दे व्यँग्य किये। वह कहन लगे– कि जो व्यक्ति तुम्हारे
पिता-पितामय का हत्यारा है, तुम उसके शिष्य हो, तुम्हें तो डूब मरना चाहिए। पठान
कहलाते हो और अपने पुरखों का बदला भी नहीं ले सकते कैसे योद्धा हो ? हमें तो तुम
नपुँसक प्रतीत होते हो, इत्यादि। यह कटाक्ष इन भाइयों के दिल को छलनी कर गया।
गुलखान इस प्रकार आवेश में आ गया और भावुकता में एकान्त पाकर गुरू जी पर कटार से
वार कर बैठा। उस समय गुरू जी विश्राम मुद्रा में लेटे ही थे। गुरू जी ने उसी क्षण
अपनी कृपाण से गुलबान को दो टुकड़ों में काट दिया। आहट पाते ही सँतरी सावधान हुआ और
उसने बाहर से भागते हुए गुलखान के छोटे भाई अताउलाखान को दबोच लिया। उसने सारा भेद
बता दिया। किन्तु जब सिक्खों ने गुरू जी का गहरा घाव देखा तो मारे क्रोध के उसे भी
उसी समय मृत्यु दण्ड दे दिया। गुरू जी के वस्त्र रक्तरँजित हो गये थे। तुरन्त शल्य
चिकित्सक को बुलाया गया। उसने गुरू जी के घाव को भी सी दिया और मरहम पटटी कर दी और
पूर्ण विश्राम के लिए परामर्श दिया। यह सूचना सम्राट को भी भेजी गई जो गुरू जी को
कुछ दिन पहले ही मिलकर दिल्ली वापिस जा रहा था। उचित उपचार होने से गुरू जी का घाव
धीरे-धीरे भरने लगा और वह लगभग पुनः स्वस्थ हो गये और साधारण रूप में विचरण करने लगे। उन्हीं दिनों हैदराबाद के कुछ श्रद्धालूओं ने गुरू जी को कुछ
वस्त्र भेंट किये जिनमें एक भारी भरकम धनुष भी था। अस्त्र-शस्त्र की प्रर्दशनी लगाई
गई। इस भारी भरकम कमान को देखकर कुछ दर्शकों ने आशँका व्यक्त की कि यह कमान तो केवल
प्रर्दशनी की वस्तु है। इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि इस कमान को प्रयोग
करने वाले योद्धा का अस्तित्व ही सम्भव नहीं। यह बात सुनकर कुछ सिक्खों ने कमान पर
चिल्ला चढ़ाने का प्रयास किया किन्तु वह असफल रहे। यह देखकर गुरू जी तैश में आ गये।
उन्होंने सिक्खों से धनुष ले लिया और उस पर चिल्ला चढ़ाकर जोर से खींचा, जिस कारण
अधिक दबाव पेट पर पड़ा और उनके कच्चे घाव खुल गये। रक्त तेजी से प्रवाहित होने लगा।
यह अनहोनी देखकर सभी भयभीत हो गये। पुनः उपचार के लिए शल्य चिकित्सक को बुलाया गया।
उसने घाव पुनः सी दिये। किन्तु गुरू जी ने कहा कि अब सभी प्रयास व्यर्थ हैं, अब
हमारा अन्तिम समय आ गया है और उन्होंने सचखण्ड गमन की तैयारी प्रारम्भ कर दी।
भाई दया सिंघ जी का निधन
: भाई दया सिंघ जी उस समय निकट ही खड़े थे। वह गुरू जी के घाव को
देखकर सिहर उठे, वह अघात सहन नहीं कर सके क्योंकि वह गुरू जी से अति स्नेह करते थे।
उनको बहुत शोक हुआ। वह शान्तचित गुरू जी के पलँग के निकट ही विराज गये। वह गम्भीर
चिन्ता में थे कि उनको मानसिक आघात हुआ और उसी के कारण उनके दिल की गति रूक गई और
वह शरीर त्याग गये। गुरू जी की आज्ञा से उनकी अँत्येष्टि क्रिया वहीं सम्पन्न कर दी
गई।