95. सहया का शिकार
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी अपने सैनिकों में सदैव शौर्य और साहसी कार्य करने के
अभ्यास करवाते रहते थे। इस कार्य के लिए वह बड़े जीवों के शिकार खेलने के करतब को
बहुत महत्व देते थे। उनका मानना था कि शिकार करने के अभियान में प्रत्येक प्रकार का
युद्ध कौशल सीखा जा सकता है। अतः वह शिकार करने का कोई भी अवसर नहीं चूकते थे। एक
दिन बहुत बड़ी सँख्या में सैनिकों को लेकर आप जी शिकार को निकले किन्तु बड़ा शिकार
हाथ नहीं आया। काफी खोजबीन के बाद आपके समक्ष एक सहया निकला जो देखते ही देखते
झाड़ियों में ओझल हो गया। गुरू जी कभी भी किसी छोटे जीव का शिकार नहीं करते थे किन्तु
उस दिन आप जी ने सहया के पीछे घोड़ा लगा दिया और उसको नगारे की भयभीत आवाजों से
डराकर झाड़ियों अथवा पथरीली ऊबड़-खाबड़ भूमि से बाहर निकाला तथा उसका शिकार कर डाला।
उस छोटे जीव को देखकर बहुत से सिक्खों ने प्रश्न किया। गुरू जी आपने इस छोटे जीव के
लिए इतना परिश्रम कभी नहीं किया जितना आज, कोई विशेष रहस्य है ? उत्तर में गुरू जी
ने कहा– यह सहया पिछले जन्म में श्री गुरू नानक देव जी का शिष्य था किन्तु समय के
अन्तराल में बेमुख हो गया। जिस कारण इसे कई योनियों में भटकना पड़ा है। इसने अपने
कल्याण के लिए श्री गुरू नानक देव जी के चरणों में प्रार्थना की थी कि मुझसे भूल
हुई है और मेरा उद्धार कब होगा तो उस समय गुरू जी ने वचन दिया कि हम दसवें जामें (शरीर)
में जब होंगे तो तेरा उद्धार करेंगे। यह सुनकर सिक्खों की जिज्ञासा तीव्र हो गई।
उन्होंने गुरू जी से आग्रह किया कि घटनाक्रम विस्तार से सुनाएँ। गुरू जी ने बताया
कि स्यालकोट में एक मूलचँद नामक व्यापारी रहता था। पीर हमजागोश ने नगर का विनाश करने
की इबादत प्रारम्भ कर दी थी। इस विनाश को रोकने के लिए श्री गुरू नानक देव जी ने
हमजागोश को बताया था कि कुछ लोग सत्य के मार्ग पर चलने वाले भी होते हैं। जो सदैव
उस प्रभु की याद में जीवन व्यतीत करते हैं तथा मृत्यु को नहीं भूलते। इसलिए उन्होंने
भाई मरदाना जी से झूठ और सच खरीद कर लाने को कहा था जो कि इस मूलचँद ने एक कागज पर
लिखकर दिया था। जिसका भाव था कि मनुष्य ने मरना अवश्य ही है। अतः सावधान होकर जीना
चाहिए। ताकि कोई गलत कार्य न हो। उस कागज के टुकड़े ने हमजागोश की समाज के प्रति
कटुता समाप्त कर दी थी।