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93. माधोदास से बंदा सिंघ बहादुर

श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी दक्षिण भारत में गुरमति का प्रचार प्रसार करने के लिए विचरण कर आगे बढ़ रहे थे कि महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों ने गुरूदेव को बताया कि गोदावरी नदी के तट पर एक वैरागी साधु रहता है जिसने योग साधना के बल से बहुत सी ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त की हुई हैं। जिनका प्रयोग करके वह अन्य महापुरूषों का मजाक उड़ाता है। इस प्रकार वह बहुत अभिमानी प्रवृत्ति का स्वामी बन गया है। यह ज्ञात होने पर गुरूदेव के हृदय में इस चँचल प्रवृत्ति के साधु की परीक्षा लेने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। अतः वह नांदेड़ नगर के उस रमणीक स्थल पर पहुँचे, जहाँ इस वैरागी साधु का आश्रम था। सँयोगवश वह साधु अपने आश्रम में नहीं था, उद्यान में तप साधना में लीन था। साधु के शिष्यों ने गुरूदेव का शिष्टाचार से सम्मान नहीं किया। इसलिए गुरूदेव रूष्ट हो गये और उन्होंने अपने सेवकों, सिक्खों को आदेश दिया कि यहीं तुरन्त भोजन तैयार करो। सिक्खों ने उनके आश्रम को बलात अपने नियन्त्रण में ले लिया था और गुरूदेव स्वयँ वैरागी साधु के पलँग पर विराजमान होकर आदेश दे रहे थे। वैरागी साधु के शिष्य अपना समस्त ऋद्धि-सिद्धि का बल प्रयोग कर रहे थे जिससे बलात नियन्त्रकारियों का अनिष्ट किया जा सके किन्तु वह बहुत बुरी तरह से विफल हुए। उनकी कोई भी चमत्कारी शक्ति काम नहीं आई। उन्होंने अन्त में अपने गुरू वैरागी साधु माधोदास को सन्देश भेजा कि कोई तेजस्वी तथा पराकर्मी पुरूष आश्रम में पधारे हैं, जिनको परास्त करने के लिए हमने अपना समस्त योग बल प्रयोग करके देख लिया है परन्तु हम सफल नहीं हुए। अतः आप स्वयँ इस कठिन समय में हमारा नेतृत्त्व करें। सँदेश पाते ही माधोदास वैरागी अपने आश्रम पहुँचा।

एक आगन्तुक को अपने पलँग, आसन पर बैठा देखकर, अपनी अलौकिक शक्तियों द्वारा पलँग उलटाने का प्रयत्न किया परन्तु गुरूदेव पर इन चमत्कारी शक्तियों का कोई प्रभाव न होता देख माधोदास जान गया कि यह तो कोई पूर्ण पुरूष हैं, साधारण व्यक्ति नहीं। उसने एक दृष्टि गुरूदेव को देखा– नूरानी चेहरा और निर्भय व्यक्ति। उसने बहुत विनम्रता से गुरूदेव से प्रश्न किया: आप कौन हैं ? गुरूदेव ने कहा: मैं वही हूँ जिसे तू जानता है और लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहा है। तभी माधोदास अन्तर्मुख हो गया और अन्तःकरण में झाँकने लगा। कुछ समय पश्चात सुचेत हुआ और बोला: कहीं आप श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी तो नहीं ? गुरूदेव: तुमने ठीक पहचाना है मैं वही हूँ। माधोदास: आप इधर कैसे पधारे ? मन में बड़ी उत्सुकता थी कि आपके दर्शन करूँ किन्तु कोई सँयोग ही नहीं बन पाया कि पँजाब कि यात्रा पर जाऊँ। आपने बहुत कृपा की जो मेरे हृदय की व्यथा जानकर स्वयँ पधारे हैं। गुरूदेव: हम तो तुम्हारे प्रेम में बँधे चले आये हैं अन्यथा इधर हमारा कोई अन्य कार्य नहीं था। माधेदास: मैं आप का बंदा हूँ। मुझे आप कोई सेवा बताएँ और वह गुरू चरणों में दण्ड्वत प्रणाम करने लगा। गुरूदेव: उसकी विनम्रता और स्नेहशील भाषा से मँत्रमुग्ध हो गये। उसे उठाकर कँठ से लगाया और आदेश दिया: कि यदि तुम हमारे बंदे हो तो फिर सँसार से विरक्ति क्यों ? जब मज़हब के जनून में निर्दोष लोगों की हत्या की जा रही हो, अबोध बालकों तक को दीवारों में चुना जा रहा हो। और आप जैसे तेजस्वी लोग हथियार त्याग कर सँन्यासी बन जायें तो समाज में अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध आवाज कौन बुलन्द करेगा ? यदि तुम मेरे बंदे कहलाना चाहते हो तो तुम्हें समाज के प्रति उत्तरदायित्त्व निभाते हुए कर्त्तव्यपरायण बनना ही होगा क्योंकि मेरा लक्ष्य समाज में भ्रातृत्त्व उत्पन्न करना है। यह तभी सम्भव हो सकता है जब स्वार्थी, अत्याचारी और समाज विरोधी तत्त्व का दमन किया जाये। अतः मेरे बंदे तो तलवार के धनी और अन्याय का मुँह तोड़ने का सँकल्प करने वाले हैं। यह समय सँसार से भागकर एकान्त में बैठने का नहीं है। तुम्हारे जैसे वीर और बलिष्ठ योद्धा को यदि अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़े तो चूकना नहीं चाहिए क्योंकि यह बलिदान घोर तपस्या से अधिक फलदायक होता है।

माधोदास ने पुनः विनती की: कि मैं आपका बंदा बन चुका हूँ। आपकी प्रत्येक आज्ञा मेरे लिए अनुकरणीय है। फिर उसने कहा मैं भटक गया था। अब मैं जान गया हूँ, मुझे जीवन चरित्र से सन्त और कर्त्तव्य से सिपाही होना चाहिए। आपने मेरा मार्गदर्शन करके मुझे कृत्तार्थ किया है जिससे मैं अपना भविष्य उज्ज्वल करता हुआ अपनी प्रतिभा का परिचय दे पाउँगा। गुरूदेव, माधोदास के जीवन में क्रान्ति देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे गुरूदीक्षा देकर अमृतपान कराया। जिससे माधोदास केशधारी सिंघ बन गया। पाँच प्यारों ने माधोदास का नाम परिवर्तित करके गुरूबख्श सिंघ रख दिया। परन्तु वह अपने आप को गुरू गोबिन्द सिंघ जी का बन्दा ही कहलाता रहा। इसलिए इतिहास में वह बंदा सिंघ बहादुर जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरूदेव को माधोदास, बंदा बहादुर में मुग़लों को परास्त करने वाला अपना भावी उत्तराधिकारी दिखाई दे रहा था। अतः उसे इस कार्य के लिए प्रशिक्षण दिया गया और गुरू इतिहास, गुरू मर्यादा से पूर्णतः अवगत कराया गया। कुछ दिनों में ही उसने शस्त्र विद्या का पुनः अभ्यास करके फिर से प्रवीणता प्राप्त कर ली। जब सभी तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी तो गुरूदेव ने उसे आदेश दिया: कि कभी गुरू पद को धारण नहीं करना, अन्यथा लक्ष्य से चूक जाओगे। पाँच प्यारों की आज्ञा मानकर समस्त कार्य करना। बंदा सिंघ बहादुर जी ने इन उपदेशों के सम्मुख शीश झुका दिया। तभी गुरूदेव ने अपनी खड़ग यानि तलवार उसे पहना दी।

किन्तु सिक्ख इस कार्य से रूष्ट हो गये। उनकी मान्यता थी कि गुरूदेव की कृपाण तलवार पर उनका अधिकार है, वह किसी और को नहीं दी जा सकती। उन्होंने तर्क रखा कि हम आपके साथ सदैव छाया की तरह रहे हैं जबकि यह कल का योगी आज समस्त अमूल्य निधि का स्वामी बनने जा रहा है। श्री गुरूदेव जी ने इस सत्य को स्वीकार किया। खड़ग के विकल्प में गुरूदेव जी ने उसे अपने तरकश में से पाँच तीर दिये और वचन किया जब कभी विपत्तिकाल हो तभी इनका प्रयोग करना तुरन्त सफलता मिलेगी। आशीर्वाद दिया और कहा: कि जा जितनी देर तू खालसा पँथ के नियमों पर कायम रहेगा। गुरू तेरी रक्षा करेगा। तुम्हारा लक्ष्य दुष्टों का नाश और दीनों की निष्काम सेवा है, इससे कभी विचलित नहीं होना। बन्दा सिंह बहादुर ने गुरूदेव को वचन दिया कि वह सदैव पाँच प्यारों की आज्ञा का पालन करेगा। गुरूदेव ने अपने कर-कमलों से लिखित हुक्मनामे दिये जो पँजाब में विभिन्न क्षेत्रों में बसने वाले सिक्खों के नाम थे जिसमें आदेश था कि वह सभी बन्दा सिंघ जी की सेना में सम्मिलित होकर दुष्टों को परास्त करने के अभियान में कार्यरत हो जाएँ और साथ ही बन्दा सिंघ को खालसे का जत्थेदार नियुक्त करके ‘बहादुर’ खिताब देकर नवाज़ा और:

1. भाई विनोद सिंघ
2. भाई काहन सिंघ
3. भाई बाज सिंघ
4. भाई रण सिंघ
5. राम सिंघ

इन पाँच प्यारों की अगुवाई में पँजाब भेजा। उसे निशान साहब यानि झँडा, नगाड़ा और एक सैनिक टुकड़ी भी दी जिसे लेकर वह उत्तरभारत की ओर चल पड़ा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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