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92. माधो दास वैरागी (बन्दा सिंह बहादुर)

बन्दा सिँघ बहादुर जी का जन्म 16 अक्टूबर 1670 ई को जम्मू-कश्मीर के पुँछ जिले के एक गाँव रजौरी में हुआ। उनके बचपन का नाम लछमन दास था। आपके पिता रामदेव राजपूत डोगरे, स्थानीय जमींदार थे। जिस कारण आपके पास धन-सम्पदा का अभाव न था। आपने अपने बेटे लछमन दास को रिवाज़ के अनुसार घुड़सवारी, शिकार खेलना, कुश्तियाँ आदि के करतब सिखलाए किन्तु शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया। अभी लछमन दास का बचपन समाप्त ही हुआ था और यौवन में पदार्पण ही किया था कि अचानक एक घटना उनके जीवन में असाधारण परिवर्तन ले आई। एक बार उन्होंने एक हिरनी का शिकार किया। जिसके पेट में से दो बच्चे निकले और तड़प कर मर गये। इस घटना ने लछमनदास के मन पर गहरा प्रभाव डाला और वह अशाँत से रहने लगे। मानसिक तनाव से छुटकारा पाने के लिए वह साधु संगत करने लगे। एक बार जानकी प्रसाद नामक साधु राजौरी में आया। लछमनदास ने उसके समक्ष अपने मन की व्यथा बताई तो जानकी प्रसाद उसे अपने सँग लाहौर नगर के आश्रम में ले आया। और उसने लछमन दास का नाम माधो दास रख दिया। क्योंकि जानकी दास को भय था कि जमींदार रामदेव अपने पुत्र को खोजता यहाँ न आ जाए। किन्तु लछमन दास अथवा माधो दास के मन का भटकना समाप्त नहीं हुआ। अतः वह शान्ति की खोज में जुटा रहा। लाहौर नगर के निकट कसूर क्षेत्र में सन 1686 ईसवी की वैसाखी के मेले पर उन्होंने एक और साधु रामदास को अपना गुरू धारण किया और वह उस साधु के साथ दक्षिण भारत की यात्रा पर चले गये। बहुत से तीर्थों की यात्रा की किन्तु शाश्वत ज्ञान कहीं प्राप्त न हुआ। इस बीच पँचवटी में उसकी मुलाकात एक योगी औघड़नाथ के साथ हुई। यह योगी ऋद्धियों-सिद्धियों तथा ताँत्रिक विद्या जानने के कारण बहुत प्रसिद्ध था। तँत्र-मँत्र तथा योग विद्या सीखने की भावना से माधोदास ने इस योगी की खूब सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर औघड़ नाथ ने योग की गूढ़ साधनाएँ व जादू के भेद उसको सिखा दिये। योगी की मृत्यु के पश्चात् माधेदास ने गोदावरी नदी के तट पर नांदेड़ नगर में एक रमणीक स्थल पर अपना नया आश्रम बनाया। यहाँ माधोदास ने ऋद्धि-सिद्धि अथवा जन्त्र-मन्त्र की चमत्कारी शक्तियाँ दिखाकर जनसाधारण को प्रभावित किया। जिससे स्थानीय लोग उन्हें मानने लगे और कुछ एक उनके शिष्य बन गये। जिससे माधेदास अभिमानी हो गया। वह प्रत्येक कार्य अपने स्वार्थ के लिए करने लगा। वह परोपकार का मार्ग भूल गया। अतः वह लोक भलाई के लिए कुछ भी न कर पाया बल्कि अपनी आत्मिक शक्ति का प्रदर्शन करके लोगों को भयभीत करने लगा जिससे लोग अभिशाप के भय से धन अथवा आवश्यक सामग्री इत्यादि आश्रम में पहुँचाने लगे। यदि कोई अन्य साधु इस क्षेत्र में आता तो माधोदास उसका अपमान करके उसे वहाँ से भगा देता। इस बात की चर्चा दूर दूर तक होने लगी कि माधेदास तपस्वी अभिमानी और हठी प्रवृत्ति का है, वह अन्य सन्तों की खिल्ली उड़ाता है। गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया और उसके आश्रम में जाकर उसे ललकारने के विचार से आश्रम की मर्यादा के विपरीत अपने शिष्यों को कार्य करने का आदेश दिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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