91. भाई मान सिंघ जी की हत्या
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी सम्राट बहादुरशाह के आग्रह पर दक्षिण की यात्रा पर निकल
पड़े। रास्ते में बादशाह को राजपूताने जाना पड़ गया क्योंकि वहाँ से विद्रोह के
समाचार मिल रहे थे। सिक्खों ने भी गुरू जी से अनुरोध किया कि राजस्थान के कुछ एक
ऐतिहासिक नगर अथवा वहाँ के किले इत्यादि देखने का मन हो रहा है। कृप्या आप भी चलें।
अतः गुरू जी भी चितौड़ नगर की यात्रा को चल पड़े। घीरे-धीरे सिक्खों ने कई दार्शनिक
स्थल देखे। इस यात्रा में सिक्खों के घोड़ों को हरे चारे की समस्या बनी रही। चितौड़
नगर के बाहर एक स्थान पर कुछ सिक्खों ने घास की गाँठें देखी किन्तु उनके स्वामी
उन्हें बेचने पर तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि यह चारा अपने घोड़ों तथा सरकारी
घोड़ों के लिए सुरक्षित है। सिक्ख विवश थे क्योंकि उनके घोड़े चारे के बिना
भूखे-प्यासे व्याकुल हो रहे थे। सिक्खों ने चारे के दाम बहुत बढ़ा कर देने का
प्रस्ताव रखा किन्तु घास के स्वामी किसी कीमत पर सहमत नहीं हुए। इस पर कुछ जवानों
ने बलपूर्वक घास उठा लिया और घोड़ों को डाल दिया। इस प्रकार उनके पक्ष में वहाँ के
निवासी इक्टठे हो गये। बात बढ़ गई जिससे भयँकर झगड़ा हो गया। देखते ही देखते तलवारें
म्यान से बाहर आ गईं और इस छोटी सी बात पर रक्तपात हो गया। इस झगड़े में कुछ
बहुमूल्य जीवन नष्ट हो गये। जब यह बात गुरू जी को मालूम हुई तो वह बहुत रूष्ट हुए।
उन्होंने बिना कारण बल प्रयोग करने के लिए सिक्खों को डाँट लगाई। राजपूताने से
लौटकर गुरू जी महाराष्ट्र की ओर बढ़ने लगे। शाही सेना भी गुरू जी के काफिले से कुछ
दूरी पर बढ़ रही थी, नर्मदा नदी के किनारे घास के मैदान में सिक्खों के घोड़े चर रहे
थे, वहीं पास में शाही सेना के घोड़े भी पहुँच गये और उन्होंने मैदान पर नियँत्रण कर
लिया। सिक्खों ने इस बात पर आपत्ति की किन्तु चारे की कमी के कारण सरकारी सैनिकों
ने हठधर्मी दिखाई। बात बढ़ गई और झगड़ा भँयकर रूप धारण कर गया। कुछ सिक्खों ने गुरू
जी को इस बात की सूचना दी। उन्होंने भाई मान सिंघ जी को दोनों पक्षों को
समझा-बुझाकर शान्त करने के लिए भेजा। भाई जी ने ऐसा ही किया परन्तु एक शाही सैनिक
ने उनको गोली मार दी। यह सैनिक सिक्ख सैनिकों से ईर्ष्या करता था। पहले यह सैनिक कभी
श्री आनंदपुर साहिब तथा श्री चमकौर साहिब के युद्धों में सिक्खों के विरूद्ध युद्ध
लड़ चुका था। अकस्मात वार में भाई जी सम्भल नहीं पाए और वहीं शरीर त्याग दिया। इस
दुर्घटना की गुरू जी ने बादशाह को शिकायत की। बादशाह बहादुरशाह ने तुरन्त उस सैनिक
को दण्ड देने के लिए गुरू जी के समक्ष प्रस्तुत किया। गुरू जी ने उसे यह कहकर माफ
कर दिया कि विद्याता की यही इच्छा थी। किन्तु गुरू जी को भाई मान सिंघ जी के निधन
पर बहुत शोक हुआ।