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88. पीर को सीख

श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी सम्राट बहादुरशाह के दरबार में उसके विशिष्ट अतिथि के रूप में विराजमान हो रहे थे तो उस समय सरहन्द के सैयद (पीर) ने गुरू जी से कहा कि गुरू जी आप अपने आपको इतना बड़ा गुरू कहलवाते हैं तो उसे कोई करामात दिखाएँ। नहीं तो वह अपनी शक्ति दिखाता है। इस पर गुरू जी कहने लगे: करामात नाम कहर का है। मैं कोई करामात नहीं जानता। मेरी करामात तो मेरा कर्तव्य ही है। परन्तु वह नहीं माना और हठ करने लगा। इस पर गुरू जी कहने लगे: तुमने शक्ति देखनी है तो बहादुरशाह के जीवन में भी करामात है। वह देखो यह चाहे तो राज्य शक्ति से अपने एक ही आदेश में कुछ भी कर सकते हैं। यह सुनकर वह पीर कहने लगा: यह करामात तो बहादुरशाह में है ही। मैं तो आपकी शक्ति देखना चाहता हूं। इस पर गुरू साहिब जी ने अपनी तलवार म्यान से निकाल ली तथा कहने लगे: मेरे पास तो यही करामात है। कहो तो इसकी करामात दिखा दूँ। यह चाहे तो अभी जीवन को मृत्यु में बदल दे। इस पर वह भयभीत हो गया और विनम्रता से कहने लगा: इस तलवार को म्यान के भीतर ही रखें। मुझे करामात नहीं देखनी। इस पर गुरू जी कहने लगे: मेरे पास एक दूसरी करामात है कहो तो वह भी दिखा दूँ। इस पर वह फिर आश्चर्य प्रकट करने लगा और पूछने लगा: वह कौन सी ? गुरू जी ने कहा: वही जिसके लिए वह दर-दर भटकता फिरता है। इस पर उस पीर ने कहा: वह समझा नहीं। तभी गुरू साहिब जी ने चाँदी के रूपयों की थैलियाँ उसके सामने पटकते हुए कहा: मेरी दूसरी करामात यही है। कहो तो इससे मैं तुमको खरीद लूँ तथा मनमानी बात तुम से करवाऊँ। इससे वह पीर गुरू जी के वास्तविक स्वरूप को जान गया कि उन्होंने एक ही इशारे में उस पर कटाक्ष किया है क्योंकि वह लोगों से चन्द चाँदी के सिक्कों पर बिक जाता है तथा अपनी अमूल्य अलौकिक शक्ति का प्रदर्शन करता फिरता है जो कि प्रकृति के काम में हस्तक्षेप है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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