84. धर्मपत्नी से मिलाप
दिल्ली में जब गुरू के महल (पत्नी), माता सुन्दरी और माता साहिब कौर जी को जब यह
मालूम हुआ कि गुरू जी साबो की तलवँडी (श्री दमदमा साहिब जी) में ठहरे हुए हैं तो वे
भाई मनी सिंघ जी के साथ यहाँ पधारे। जब उन्होंने अपने बेटों के विषय में गुरू जी से
पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया: इन पुत्रन के शीश पर वार दिये सुत चार ।। चार मुए तो
क्या हुआ जीवत कई हजार ।। अर्थात गुरू जी ने सामने बैठे सिक्खों की ओर सँकेत करके
कहा: कि यह सिक्ख ही तुम्हारे वास्तविक पुत्र हैं जो सदैव खालसा पँथ के रूप में
जीवित रहेंगे। इन्हीं में आप उन पुत्रों को भी देख सकती हैं, जो केवल शरीर त्याग गये
हैं किन्तु अमर होकर इन्हीं मे सदैव विचरण करते रहेंगे। यह आध्यात्मिक ज्ञान सुनकर
माता सुन्दरी जी ने कहा– आप ठीक कहते हैं। मैं अपने आपको भाग्यशाली मानने लगी हूँ
कि मेरे पुत्रों ने धर्म की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहुति दी है।
गुरू चरणों में पीढ़ी जितना स्थान
: जागीरदार डल्ले ने गुरू जी की सेवा करने में बहुत बहादुरी का
प्रर्दशन किया था। उसने सरहंद के नवाब की धमकियों की कोई परवाह नहीं की थी बल्कि
उसको साफ लिख दिया था कि वह श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को पकड़ने की गल्ती बिल्कुल न
करे। गुरू जी भी भाई डल्ले की इस बहादुरी, दिलेरी और कुर्बानी की कद्र करते थे। एक
दिन गुरू जी ने प्रसन्न होकर भाई डल्ले को कहा– भाई डल्ला ! गुरू नानक के घर में
किसी चीज की कोई कमी नहीं है। तूँ जो कुछ चाहता है, बता ! भाई डल्ले ने बहुत
नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, सच्चे पातशाह ! धन, जमीन, इज्जत आदि दुनियावी पदार्थ पहले
ही आपकी कृपा से बहुत हैं। इन पदार्थों की और चाह नहीं। यदि मेहरबान हो तो अपने चरणों
में एक पीढ़ी जितना स्थान दे दो। गुरू जी ने उत्तर दिया– भाई डल्ला ! तुने हमारी सेवा
की खातिर दुनियावी पदार्थों को खतरे में डाला है। उनके बदले दुनियावी पदार्थ ही मिल
सकते हैं जो कुछ तूँ माँग रहा है, यह दुनियावी पदार्थों के तुल्य नहीं मिल सकता।
गुरू के सँग निकटता तो प्रेम का सौदा है। प्रेम पैसे से नहीं खरीदा जा सकता। यहाँ
पर तो तन-मन भेंट करना होता है। यदि तूँ हमारे समीप होना चाहता है तो वही प्रण कर
जो सिक्खों ने किया है। जो हमने भी किया है। अतः अमृतपान करके सिक्खी मार्ग पर चल।
इस तरह गुरू घर में सदा के लिए स्थान मिल जाएगा। भाई डल्ले ने गुरू जी के उपदेश के
आगे शीश झुका दिया। अमृतपान करके वह भाई डल्ला सिंघ बन गया और अपने सारे परिवार को
भी उसने अमृतपान करवाया।
कवि दरबार
: जैसे श्री पाँउटा साहिब जी में रोज कवि दरबार लगा करते थे, वैसे
ही श्री दमदमा साहिब, साबो की तलवँडी में भी कवि दरबार लगने लग गए। अधिकाँश कवि फिर
से गुरू जी के पास श्री दमदमा साहिब जी में आ चुके थे। हजारों की गिनती में संगत भी
नगर-नगर, गाँव-गाँव से पहुँचने लगी थी और खूब रँग बँधता था। कवियों से जोशीली
कविताएँ सुनकर वे लोग भी अमृतपान करने को तैयार हो जाते जिन्होंने अभी अमृतपान नहीं
किया होता था। लोग समझते थे कि अमृतपान करके ही एक-एक व्यक्ति सवा-सवा लाख से जूझ
सकता है और इस प्रकार गुलामी की जँजीरें तोड़ी जा सकती हैं। प्रचार का असर साबों की
तलवँडी श्री दमदमा साहिब जी में निवास करते हुए साहिब श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने
गुरमत प्रचार के भरसक प्रयास किये। अधिक से अधिक लोगों को अमृत की निधि प्रदान की।
गुरू जी के प्रयत्नों से एक लाख बीस हजार की भारी सँख्या में लोगों ने अमृतपान किया।