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81. सच्चा प्रेम ही प्रभु चरणों में स्वीकार

श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी जिला बठिण्डा नगर के प्रचार दौरे पर थे कि एक रात्रि में जब आप विश्राम अवस्था में अपने तम्बू में थे तो आपने दूर से मधुर स्वर में कुछ लोगों के गाने की आवाज सुनी, गाने वाले यात्री बलोच थे जो प्रसिद्ध आशिक सस्सी-पुन्नू की गाथा काव्य रूप में गा रहे थे। गाने वाले व्यक्तियों के गले में वास्तविक वैराग्य अथवा करूणामय धुन का स्वर सुनकर गुरू जी बहुत प्रभावित हुए। गुरू जी ने उन यात्रियों को अपने दरबार में आने का निमँत्रण भेजा। जब वे लोग गुरू जी के समक्ष उपस्थित हुए तो गुरू जी ने उनसे कहा कि तुम लोग जो रात में सूर लगाकर काव्य पठन कर रहे थे। वह हमें दुबारा सुनाएँ। यह आज्ञा पाकर वह बहुत नम्र भाव से बोले– गुरू जी आपके सम्मुख प्रेम किस्सा सुनाते हुए शर्म आती है। गुरू जी ने कहा ठीक है, बीच में पर्दा लगा देते हैं तुम लोग गाओ। आज्ञा मानकर वे प्रयास करने लगे किन्तु रात वाली भावनात्मक बात नहीं बनी, सब कुछ फीका सा रहा। खैर..... गुरू जी ! फिर भी प्रसन्न हुए और उनको पुरस्कार देकर विदा किया। किन्तु कुछ सिक्खों ने आपत्ति की कि गुरू जी आध्यात्मिक दुनियाँ में इन आशिकों की प्रेम कथा कहाँ तक उचित है ? उत्तर में गुरू जी ने कहा: आप सभी लोग एक-एक अँगुली गर्म रेत में डालकर एक घड़ी रखें। किसी ने भी ऐसा नहीं किया। गुरू जी ने बात का समाधान किया। सस्सी ने अपने प्राणों की परवान न कर मरूस्थल की गर्म रेत में अपने आशिक की खोज में मृत्यु को स्वीकार कर लिया था। वह त्याग और बलिदान की कहानी है। अतः तर्क वही करने का अधिकारी है, जो इससे अधिक त्याग और बलिदान करने की क्षमता रखता हो ?

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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