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80. हाजरी मन की अथवा तन की

श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी तलवँडी साबो की तरफ प्रस्थान कर रहे थे तो एक रात्रि मे गाँव बाजक के निकट आपने अपना शिविर लगवाया। प्रातः और रात्रि के समय आपके तम्बू के पास चार सिक्ख सँतरी रूप में पहरा दिया करते थे। यहाँ भी ऐसा ही किया गया। रात्रि को अँधेरा अधिक घना हुआ। जब गुरू जी विश्राम कर रहे थे, तभी गाँव में कुछ दूर नट लोगों द्वारा आयोजित कार्यक्रम के सँगीत की मघुर ध्वनियाँ गूँजने लगीं। इस ध्वनि को सुनकर, इन चारों सन्तरियों ने आपस में विचार किया कि वह नाटक देखा जाये, परन्तु दो सँतरियों का विचार था कि वे डयूटी पर हैं इसलिए उनका वहाँ जाना अपराध है। किन्तु दो सँतरियों ने विचार किया कि ठीक है वे लोग कुछ समय के लिए वहाँ हो आते हैं, तब तक दूसरे लोग यहाँ पर ही रहें। इस प्रकार वे नाटक देखने चले गये। परन्तु वहाँ पर उन लोगों का मन नाटक देखने में लगा ही नहीं, बस उन दोनों के दिल मे भय समाया रहा कि उन्होंने अपराध किया है। वे डयूटी से क्यों आये। इस प्रकार उनका मन डयूटी पर ही रहा। इसके विपरीत डयूटी पर तैनात सँतरियों के मन में विचार उत्पन्न हुआ कि वे क्यों न नाटक देखने चले गये तथा वे मन ही मन सँगीत की ध्वनि से नाटक का अनुमान लगाते रहे। जब सुबह हुई तो गुरू जी ने आदेश दिया कि रात्रि में जो सँतरी डयूटी से गैर हाजिर थे, उनको पेश किया जाये। जो नाटक देखने गये हुए थे उनको पेश कर दिया गया परन्तु गुरू जी ने कहा– यह लोग वास्तव में उपस्थित थे क्योंकि यह मन करके डयूटी दे रहे थे, परन्तु जो अपने आप को हाजिर समझ रहे हैं, वास्तव में वही गैरहाजिर थे क्योंकि उनका मन तो नाटक देखने में था। अतः गुरू जी ने स्पष्ट किया कि यहाँ तो हाजरी मन की ही मानी जाती है, तन की नहीं। आध्यात्मिक दुनियाँ का यही दस्तूर है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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