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79. मालवा क्षेत्र में प्रचार

श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी बिदराणे की ढाब क्षेत्र में बहुत अधिक सफल रहे। वह क्षेत्र रणनीति अथवा सामरिक दृष्टि से उचित था। अब शत्रु सेना परास्त होकर लौट चुकी थी। अतः पुनः किसी नये आक्रमण का कोई भय नहीं बचा था। गुरू जी ने इस पिछड़े हुए क्षेत्र में गुरमति प्रचार करने का मन बनाया और गाँव-गाँव विचरण करने लगे। इस मालवा क्षेत्र में श्री गुरू नानक देव जी अथवा अन्य गुरूजनों के समय से ही सिक्खी फल-फूल रही थी किन्तु समय के अन्तराल के कारण उसे पुर्नजीवित करना आवश्यक था। आपका मुख्य उद्देश्य जनसाधारण को दीक्षित करके सिक्ख से सिंघ सजाना था इसलिए आप सभी अनुयाईयों को अमृतपान करने के लिए प्रेरणा करते। अधिकाँश लोग सहर्ष आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए अपने आप को समर्पित करते। फिरोजपुर के समीप वजीदपुर में आपने एक विशाल समारोह का आयोजन किया जिसमें निकटवर्ती गाँवों के लोगों को एक स्थान पर एकत्रित करके एक साथ अमृतपान कराया। आपके प्रचार अभियान से प्रभावित होकर एक मुस्लमान फकीर सैयद इब्राहिम शाह ने आपसे अनुरोध किया किया कि उसे भी आप दीक्षित करें और नामदान से कृतार्थ करें। गुरू जी अति प्रसन्न हुए और उसकी अभिलाषा सम्पूर्ण करके सिंघ सजाया और उसका नाम अजमेर सिंघ रखा। गुरू जी बहुत ने बहुत बड़ी सँख्या में स्थानीय बैराड़ जाति से संबंधित वेतनधारी सेना भी भर्ती करके साथ रखी हुई थी। उनको कुछ समय से वेतन का भुगतान नहीं हो पा रहा था। जब गुरू जी छतेआण गाँव पहुँचे तो बैराड़ सैनिक अड़कर खड़े हो गये। उनका कहना था कि आगे का क्षेत्र साबो का है उसका स्वामी डल्ला है, हमारी सीमा यहीं समाप्त होती है अतः हम आगे नहीं जाएँगे। हमें हमारा वेतन यहीं दे दीजिए। गुरू जी ने उन्हें बहुत समझाया, देर-सवेर हो जाती है, तुम्हें वेतन मिल जायेगा। संगतें धन लाएँगी हम विभाजन कर देंगे। आज इत्फाक से खजाना नहीं है। तभी उसी समय एक सिक्ख ने रूपयों तथा अशर्फियों से लदे हुए खच्चर गुरू जी के सामने लाकर खड़े कर दिये। यह सिक्ख अपने क्षेत्र का दसवँत यानि कि उस क्षेत्र के लोगों की कुल आय का दसवाँ भाग जो लोगों ने गुरू घर के लिए अपनी श्रद्धा से दिया था, लाया था। गुरू जी ने पाँच सौ सवार और नौ सौ पैदल सैनिकों को तुरन्त गिनकर वेतन बाँट दिया। और इसके अलावा एक-एक ढाल रूपयों की भरकर प्रति सैनिक बख्शीश रूप में भी दिये।

अन्त में इन सैनिकों के जत्थेदार भाई दाने को गुरू जी ने कहा: दाना ! तूँ भी वेतन ले ले, तूँ जत्थेदार है, तुझे किस हिसाब से वेनत दें। इस पर दाना हाथ जोड़कर विनती करने लगा: हे गुरू जी ! मुझे माया मोह के बन्धन में न बाँधें। अपनी कृपा दृष्टि रखें और सिक्खी दान दें। वैसे आपका दिया हुआ सब कुछ घर में है किसी वस्तु की कमी नहीं। गुरू जी ने उसका प्रेम देखकर मुँहमाँगी मुरादें दी। जो माया खच्चरों में से बची, वहीं उस धन को भूमि में गाड़ दिया। गुरू जी वहाँ से चले जाने के बाद जब लोगों ने चोरी से वह स्थान खोदा तो धन कहीं न मिला। तब से उस स्थान का नाम गुप्तसर हो गया। गुरू जी को भाई दाना जी अपने गाँव ले गये और वह वहाँ पर गुरू जी की सेवा करना चाहते थे किन्तु गुरू जी की दृष्टि उसके घर पर पड़े हुए हुक्के पर पड़ गई। गुरू जी ने भोजन स्वीकार करने से इन्कार कर दिया और कहा: कि यदि आज से तुम तम्बाकू का सेवन त्याग दो तो हम तुम्हारे घर का भोजन स्वीकार कर सकते हैं। दाना जी कहने लगे: गुरू जी ! मुझे अफारा रोग है, मैं इसलिए इसका प्रयोग करता हुं क्योंकि इससे मुझे राहत मिलती है और दूसरा जाति-बिरादरी के लोग एकत्रित होने पर यह हुक्का सामाजिक स्वागत की परम्परा का रूप धारण कर गया है। अतः इसका त्याग कठिन है। इस पर गुरू जी ने कहा: यदि तुम हमारा वचन नहीं मानते तो हम लोग जाते हैं। भाई दाना, गुरू जी पर अथाह श्रद्धा भक्ति रखता था, वह गुरू जी को रूष्ट कैसे देख सकता था, उसने तुरन्त निर्णय लिया मैं आज से तम्बाकू का सेवन नहीं करूंगा। उसकी नम्रता और श्रद्धा देखकर गुरू जी ने वचन दिया: यदि तुम तम्बाकू का सेवन त्याग दोगे तो अफारा रोग कभी भी तुम्हारे निकट नहीं आयेगा और समाज में तुम्हारी प्रतिष्ठा और बढ़ जायेगी। भाई दाना जी ने बहुत प्रेम से समस्त संगत को लँगर सेवन कराया। किन्तु गुरू जी ने उसे कहा: यदि तुम श्री गुरू नानक देव जी के घर की कृपा चाहते हो तो अमृतपान करो, जिससे तुम सदैव उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होते चले जाओगे। दाना जी ने तर्क रखा: गुरू जी हम कई पीढ़ियों से गुरू घर के सिक्ख चले आ रहे हैं। अतः मुझे केश रखने के बन्धन में न डालें। गुरू जी ने कहा: केश अति अनिवार्य हैं। हमारा सिक्ख वही कहलायेगा जो केशों की सेवा सम्भाल रखेगा और अपने न्यारे स्वरूप में समाज में रहेगा, जिससे दूर से ही बिना परिचय प्राप्त किये मालूम हो जाएगा कि वह केशधारी व्यक्ति गुरू नानक का सिक्ख है। इस प्रकार आपको समाज में सहज में ही आदर प्राप्त होगा और कोई व्यक्ति भूल से भी तम्बाकू इत्यादि के सेवन के लिए आग्रह नहीं करेगा। भाई दाना जी गुरू जी की सीख से सन्तुष्ट हो गये और अमृतपान करने के लिए सहमति प्रदान कर दी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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