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77. मुगलों से अन्तिम युद्ध के लिए उचित क्षेत्र की खोज

इस अवधि में जहां गुरू जी के पास काफी सैनिक इक्टठे हो गये थे वहीं सरहन्द के सुबेदार वजीर खान को गुरू जी के बारे में पुरी जानकारी प्राप्त हो गई थी कि यह रायकोट के चौधरी राय कल्ला के पास सम्मानपूर्वक ठहरे हुए हैं। वजीर खान अपने किये हुए पापों के कारण स्वयँ ही भयभीत रहने लगा था, उसको सँदेह था कि गुरू जी पुनः शक्ति प्राप्त करके मुझ से अपने बच्चों की हत्या का बदला अवश्य ही लेंगे। अतः वह चिन्तित रहने लगा और गुरू जी को समाप्त करने की योजना बनाने लगा। जब गुरू जी को वजीर खान की नीतियों का ज्ञान हुआ तो उन्होंने युद्ध की सम्भावना पर विचार किया और सामरिक दृष्टि से किसी उचित स्थान की खोज के लिए रायकोट से प्रस्थान कर गये। आगे समस्त क्षेत्र गुरू जी के श्रद्धालू सिक्खों का था। अतः आप प्रचार के दौरे पर निकल पड़े। रायकोट से लम्मा जटपुरा पहुँचे और कुछ दिन वहीं गुरूमति का प्रचार करते रहे। संगत गुरू जी के प्रवचनों से बहुत प्रभावित होती क्योंकि आप जी जो कहते थे, वही अपने जीवन में करके दिखाते थे। प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की तो आवश्यकता ही नहीं, स्पष्ट था। गुरू जी ने अपना सर्वत्र न्यौछावर कर दिया था। अब उनके पास न किले थे न सेना थी, न ही उनके सुकुमार सुपुत्र। सब मानव कल्याण के लिए शहीद हो चुके थे। समस्त संगत गुरू जी के त्याग और बलिदान का अनुभव कर रही थी। इसलिए अधिकाँश युवा वर्ग गुरू जी को अपनी सेवाएँ समर्पित करने के लिए उनके साथ हो गये। गुरू जी गाँव-गाँव अपने सेवकों के साथ प्रचार अभियान में विचरने लगे। आप माणू के महदिआणा, चकर, तखतूपुरा और मधेय होते हुए दीना काँगड़ा पहुँचे। इस क्षेत्र में छठे गुरू श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी के समय से सिक्खी का बहुत प्रसार हो रहा था, अतः वहाँ की संगत ने आपका भव्य स्वागत किया। यहाँ के चौधरी लखमीर और शमीर सूचना मिलने पर दर्शनों के लिए आए और गुरू जी को तन मन से सहयोग देने का वचन दिया। आसपास के क्षेत्रों से लोग बीहड़ों को पार करते हुए दर्शनों के लिए आने लगे। गुरू जी स्वयँ भी स्थानीय संगत के अनुरोध पर उनके इलाकों में प्रचार के लिए जाने लगे। इस भ्रमण के आपका सैन्य बल पहले की भान्ति स्थापित हो गया। यहीं से गुरू जी ने औरँगजेब को जाफरनामा अरबी भाषा में लिखा था और लानत भेजी थी कि कुरान की कसमें खाने के बाद भी उसने अपनी सेना उनके पीछे लगा रखी है। जाफरनामा अर्थात विजय पत्र।

इस विस्तृत पत्र को विषयवस्तु की दृष्टि से कई भागों में बाँट सकते हैं। इन एक सौ बारह शेरों में, 12 शेर मँगलाचरण के रूप में अकालपुरख (परमात्मा) की स्तुति के हैं। इसके उपरान्त औरँगजेब की कसमें व उनके मुकरने का वर्णन है। इसके साथ ही उसके अत्याचारी जीवन का सँकेत है। बादशाह के कर्तव्य, राजनीति व उच्च मानवीय मूल्यों अथवा आदर्श आचारसँहिता संबंधि पथ प्रर्दशन भी किया गया है। सच्चा धार्मिक जीवन और प्रभु में अटल विश्वास दृढ़ करवाया है। चमकौर के युद्ध का सँक्षिप्त दृश्य प्रस्तुत करके सिक्खों के शौर्य को दृष्टमान किया है। अन्त में बादशाह को सच्चे कार्य पर चलने की प्रेरणा दी है। मुख्य सँदेश में गुरू जी ने औरँगजेब के कुकृत्यों, शपथ-भँग, अत्याचारों, मिथ्या व्यवहारों और लूमड़-चालों की कड़ी आलोचना इस पत्र में की है। उन्होंने स्पष्ट किया कि तुमने (औरँगजेब) कुरान की झूठी कसम खाई, खुदा और ईमान को बीच में डाला तथा फिर मुकर गये। खुदा के नाम पर बात कहकर मुकरने से अधिक भ्रष्ट कार्य और क्या हो सकता है ? तुम्हारी सेना, सेनापति और अन्य अधिकारी, सब बेईमान हैं। तुमने मुझे हथियार उठाने को मजबूर किया। यह तो तुम भी मानोगे कि जब अन्य सब उपाय व्यर्थ जो जायें तो हथियार उठाना ही उचित होता है। वैसे मुझे ज्ञात था कि तुम इतने चालबाज और मिथ्याचारी हो, तुम्हारी राजनीतिक कसमें सभी झूठी हैं। यह मुझे पूर्ण विश्वास था, किन्तु समय और विवशता के कारण अथवा अपने सिक्खों का आगामी समय में पथ-प्रदर्शन के कारण मुझे तुम्हारी कसमों की परीक्षा लेने के लिए अपने आपको दाँव पर लगाना पड़ा। मुझे तो एकमात्र अल्लाह का सहारा है, इसलिए सिंघों के मित्र मृगों और गीदड़ों से नहीं डरा करते। तुम अपनी करतूतों का क्या जवाब दोगे ? खुदा के दरबार में तुम्हारा सिर नीचा होगा और तुम पछताओगे। मुगल साम्राज्य में सम्राट को ऐसी डाँट से भरा पत्र, श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी जैसा दिलेर ही लिख सकता था। उसकी ताकतों को गुरू जी ने ललकारा और सम्राट औरँगजेब के मन में आतँक पैदा कर दिया। पत्र तैयार होने के बाद गुरू जी के सामने समस्या उभरी, इसे औरँगजेब तक पहुँचाने की। वे जानते थे कि ऐसा पत्र ले जाने वाला औरँगजेब के हाथों मारा तो जायेगा ही, इसलिए बिल्ली के गले में घण्टी बाँधने के लिए सहर्ष कौन तैयार हो सकता है, यह चुनाव अनिवार्य था। गुरू जी के आहवान पर भाई दया सिंघ अपने प्राणों को हथेली पर रखकर पत्र ले जाने को तत्पर हुए। उन्हें पत्र केवल औरँगजेब के हाथों में सौंपने का आदेश देकर गुरू जी ने विदा किया।

जफरनामा को पढ़कर सम्राट औरंगजेब काँप गया। वह मानसिक रूप से इतना तनाव में आ गया कि वह बीमार पड़ गया। यही बीमारी औरँगजेब का काल बनी और वह सदा के लिए अपने झूठ के साथ ही दफन हो गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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