74. चमकौर की रणभूमि से माछीवाड़ा
क्षेत्र में
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी तथा उनके दो अन्य सेवकों ने शत्रु सेना को झाँसा देकर
माछीवाड़ा क्षेत्र की ओर रूख किया। रात अन्धेरी, लम्बी तथा वर्षा के कारण अति शीतल
थी। राह दिखाई नहीं देता था। हर दिशा में काँटेदार झाड़ियाँ थी। अतः गुरूदेव जी का
जूता कीचड़ में कहीं खो गया। किन्तु आप किसी अदम्य साहस के साथ आगे बढ़े जा रहे थे।
कभी कभी आकाश में बिजली चमकने मात्र से आपका मार्गदर्शन हो रहा था। उबड़-खाबड़
क्षेत्रों को पार करते समय दोनों सेवक भी बिछुड़ गये। किन्तु आप रातभर चलते ही गये,
जब तक आपको माछीवाड़ा गाँव दिखाई न दिया। अब आप शत्रु सेना से दूर गाँव के बाहर एक
बगीचे में थे। यह बाग गुलाबे मसँद (मिशनरी) का था। इस बाग में एक रहट वाला कुआँ था,
जिसे अमृत बेला में बगीचे का माली चला रहा था। आपने कुएँ पर हाथ मुँह धोए, तभी उस
माली ने आपको पहचान लिया। माली ने आपको इस कुएँ के निकट बने हुए छप्पड़ में विश्राम
करने का आग्रह किया। आपने रहट की पुरानी टिंड को अपना सिरहाना बनाया और उस माली की
चटाई पर लेट गये। माली अपने स्वामी गुलाबे मसँद को सूचित करने चला गया कि आपके बगीचे
में गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी पधारे हैं। इतने में बिछड़े हुए सिंघ आपकी खोज करते
हुए वहाँ पहुँच गये। उन्होंने मिलकर अभिनँदन करने के लिए जयकार की– वाहिगुरू जी का
खालसा, वाहिगुरू जी की फतेह। गुरूदेव जी सतर्क हुए। उन्होंने भी उत्तर में जयकारा
बुलँद किया।
गुलाबा मसँद सूचना पाते ही आपकी अगुवाई करने उपस्थित हुआ वह सभी
को अपने घर ले गया और गुरूदेव जी का भव्य स्वागत किया किन्तु मुग़ल प्रशासन से भयभीत
भी हो रहा था कि शत्रुओं को भनक न मिल जाये कि गुरूदेव जी मेरे पास पधारे हैं। अतः
उसने गुरूदेव जी तथा सिक्खों को घर के तहखाने में निवास करवाया और श्रद्धा से सेवा
में जुट गया। इस गाँव में गुरूदेव जी के दो मुसलमान सेवक गनीखान तथा नबीखान रहते
थे। ये लोग घोड़ों का व्यापार करते थे। उन्होंने गुरूदेव जी को कई बार घोड़े बेचे थे
और प्रायः गुरूदेव जी से मिलते रहते थे इसलिए उनके व्यक्तित्त्व से बहुत प्रभावित
थे अतः उन पर श्रद्धा भक्ति रखने लगे थे। जब मुग़ल सैन्यबल ने गाँव गाँव की तलाशी
अभियान चलाया तो गुलाबे मसँद को चिन्ता हुई। गुरूदेव जी भी उसे किसी कठिनाई में नहीं
डालना चाहते थे, इसलिए उन्होंने गनीखान और नबीखान को बुला भेजा। इन दोनों भाइयों ने
गुरूदेव जी को सँकट की घड़ी में हर प्रकार की सहायता देने का आश्वासन दिया और अपनी
सेवाएँ अर्पित की। सभी ने मिलकर एक योजना बनाई और युक्ति से गुरूदेव जी को किसी
सुरक्षित स्थान पर ले चलने के कार्य में जुट गये। उन दिनों उच्च के पीर मुसलमानों
में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त थे। यह मुसलमान सूफी फकीर लम्बी दाढ़ी तथा केश रखते थे
परन्तु केशों का जूड़ा नहीं करते थे अपितु उन्हें खुला, जटाएँ रूप में रखकर ऊपर पगड़ी
बाँधते थे और नीले वस्त्र धारण करते थे। प्रायः अपने मुरीदों से मिलने अथवा लोगों
से भेंट इत्यादि लेने, गाँवों अथवा देहातों में भ्रमण के लिए निकला करते थे। इन पीरों
को श्रद्धावश उनके श्रद्धालु पलँग पर बिठाकर पलँग स्वयँ एक गाँव से दूसरे गाँव में
अन्य मुरीदों, शिष्यों के पास पहुँचा देते थे। उच्च नाम का नगर सिन्ध प्रान्त,
पाकिस्तान जिला बहावलपुर में है। गुरूदेव जी को उच्च के पीर की तरह वेशभूषा धारण
करवा दी गई और उन्हें उसी प्रकार पलँग पर बिठाकर माछीवाड़े से दूर किसी सुरक्षित
स्थान के लिए चल पड़े। गुरूदेव जी के पलँग के आगे से गनीखान तथा नबीखान ने उठाया तथा
पीछे से भाई दया सिंघ तथा मानसिंघ जी ने उठा लिया और एक अन्य सेवक को हाथ में मोर
पँख का चँवर थमा दिया, जो वह गुरूदेव जी के ऊपर झूलाने लगा। स्थानीय लोग गनीखान,
नबीखान के कथन पर पूर्ण भरोसा कर रहे थे क्योंकि वे यहाँ के गणमान्य व्यक्ति थे। अतः
लोग गुरूदेव जी को उच्च का पीर जानकर बहुत अदब से सजदा करते थे।
माछीवाड़े से लगभग 20 कोस दूर एक फौजी चौकी पर शाही सेना ने
गुरूदेव जी को सँदेह में रोक लिया और गुरूदेव जी से अधिकारियों ने बातचीत की जिसका
उत्तर गुरूदेव जी ने फारसी भाषा में दिया किन्तु अधिकारी दुविधा में था। एक तरफ
उच्च का पीर दूसरी तरफ ‘गुरू जी का बचकर निकल जाना, उसकी नौकरी को सँकट में डाल सकता
था। अतः वह आश्वस्त होना चाहता था। उसने प्रस्ताव रखा कि आप हमारे यहाँ भोजन करें।
उत्तर में गुरूदेव जी ने कहा– मैंने चिल्ला लिया हुआ है अर्थात मैंने उपवास धारण
किया हुआ है परन्तु मेरे मुरीद, शिष्य ये आपके साथ भोजन करेंगे। ऐसा ही किया गया जब
भोजन करने लगे तो भाई दया सिंह जी ने गुरू आज्ञा अनुसार अपनी लघु कृपाण भोजन, पुलाव
में डालकर गुरू मन्त्र उच्चारण किया, ‘तौह प्रसादि, भ्रम का नाश’ और सहर्ष भोजन कर
लिया। चलते समय थाली में से कुछ अँश रूमाल में बाँध लिया। इस बीच सैनिक अधिकारी ने
निकट के गाँव सलोहपुर से काजी पीर मुहम्मद को गुरूदेव जी की पहचान करने के लिए बुला
लिया। यह काजी साहब, गुरूदेव जी को बचपन से फारसी भाषा का अध्ययन करवाते थे। जब काजी
साहब ने गुरूदेव जी को पहचाना तो उसने दोहरे अर्थो वाली भाषा में कहा– कि हाँ मैं
इन्हें जानता हूँ यह मेरे भी पीर हैं। इन्हें जाने दो। इस प्रकार गुरूदेव जी विकट
परिस्थिति से सहज ही निकल गये। परन्तु गनीखान नबीखान के मन में एक भ्रान्ति उत्पन्न
हुई कि चलो हम तो मुसलमान हैं किन्तु गुरूदेव जी के अन्य सेवक तो मुसलमान नहीं,
उन्होंने भी वही भोजन किया जो हमें करवाया गया। क्या गुरू समर्थ नहीं हैं ? तभी
गुरूदेव जी ने पलँग रोकने के लिए कहा और भाई दया सिंह को आदेश दिया जो भोजन आप
रूमाल में बाँध कर लाये हैं, वह इन भाईयों के सामने खालो। ऐसा ही किया गया रूमाल
खोलते ही उसमें भीनी-भीनी हलवे की सुगँध आने लगी और पुलाव का हलवा दृष्टिमान हुआ।
गनीखान नबीखान आश्चर्य चकित हुए। गुरूदेव जी ने स्पष्ट करते हुए कहा कि मैं भविष्य
के लिए अपने अनुयाइयों को कर्मयोगी बनाने का खेल खेल रहा हूँ। यदि मैं आत्मिक शक्ति
का प्रयोग करके कोई कार्य करता हूँ तो वह कोई महत्त्व नहीं रखता। इससे जनसाधरण
कहेंगे कि गुरूदेव जी तो समर्थ थे, वह सभी कुछ आत्मबल से कर लेते थे किन्तु हम
साधारण मनुष्य हैं। अतः हमारे बस का नहीं खतरों से खेलना। इसलिए मैं समर्थ होते हुए
भी एक साधारण मनुष्य की तरह वह सभी कार्य करता हूँ और उसे व्यवहारिक रूप देता हूँ,
जिससे जनसाधारण को प्रेरणा मिले।