72. श्री आनंदगढ़ साहिब जी का त्याग
सन 1705 ईस्वी 20 दिसम्बर की मध्यरात्रि का समय, पँजाब में शीत ऋतु अपने यौवन पर
थी। बाहर हडिडयाँ जमा देने वाली सर्दी थी, क्योंकि दो दिन से घनघोर वर्षा हो रही थी
और अभी भी बूँदाबाँदी हो रही थी। श्री आनंदपुर साहिब जी में सन्नाटा था। कोसों तक
फैले मुगलों के शिविरों में मौन व्याप्त था। सँसार सो रहा था किन्तु श्री आनंदगढ
साहिब जी के अन्दर कुछ हलचल थी। कोई अपना धन लूटा रहा था, अमूल्य वस्तुओं को अग्नि
भेंट करके अथवा भूमि में गाढ़कर। श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी की श्री आनंदपुर साहिब
जी में यह अन्तिम रात्रि थी। कल प्रातः न जाने वह कहाँ होंगे और उनके बच्चे कहाँ ?
श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने से पहले वह खाली होकर, हल्का होकर जाना चाहते थे। सभी कुछ
स्वाहा करके। जो अग्नि सम्भाल न सके, उसे धरती के सुपर्द करके, जिससे शत्रु के
नापाक हाथ इन चीजों को छू न सकें, इसकी दुर्गति न हो। आधी रात बीतने को आई। तारों
के हल्के प्रकाश में छाती तनी हुई छवि वाला एक ईश्वरीय चेहरा किले से बाहर निकला।
मर्द अगमड़ा श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी श्री आनंदपुर साहिब जी को छोड़कर जा रहे थे।
आगे-आगे दो सूरमा थे। दाहिनी और मोहकम सिंघ और साहिब सिंघ, पीछे-पीछे गुरू साहिब जी
के दो बड़े लाल? साहिबजादा अजीत सिंघ जी और साहिबजादा जुझार सिंघ जी। इनके हाथों में
तीर कमान थे। इनके पीछे भाई हिम्मत सिंघ जी, सिक्का बारूद और तोप का तोड़ा कन्धों पर
उठाये आ रहे थे। उनके साथ-साथ गुलाब राय, शयाम सिंघ और गुरू जी के अन्य सँगी साथी
चल रहे थे। अन्तिम लाईन में थे गुरू के नौकर चाकर और पाँच एक सौ भूख से सताये हुए
सिक्ख। गुरू जी की माता छोटे दो साहिबजादों के साथ सबसे पहले रवाना की
जा चुकी थीं। उन्हीं के साथ गुरू साहिब जी की धर्मपत्नियाँ माता सुन्दरी जी माता
साहिब कौर जी भी चली गईं थी। ये लोग श्री आनंदपुर साहिब जी से कहाँ जा रहे थे। यह
शायद उन्हें भी पता न था। जा रहे थे परमात्मा अकाल पुरूख के भरोसे। स्वाभिमान के
बदले ताज, तख्त ठुकराने वाले व्यक्तियों का वह काफिका बिना मँजिल का पता लगाये निकल
पड़ा। इनका हर कदम मँजिल था। अभी गुरू साहिब जी सरसा नदी के इस पार ही थे कि भोर हो
गई। इसी अमृतकाल में हर रोज श्री आनंदगढ़ साहिब जी में आसा की वार का कीर्तन सजा करता
था। गुरू साहिब और सिक्ख भक्ति में जुड़ जाया करते थे और कीर्तन का रस लेते। इस समय
प्रभु से ध्यान लगाने की आदत पक्की होने के कारण शिष्यों को कुछ खोया-खोया सा अनुभव
हुआ। कई सालों में आज पहली बार वे आसा जी की वार का समय टालने पर मजबूर हुए थे। गजों
की दूरी पर बैठी दुश्मन की फौजों से बचकर वे चुपचाप जा रहे थे। कीर्तन करना दुश्मन
को बुलाकर मुसीबत मोल लेना था। शत्रु के आक्रमण की कोई चिन्ता न करके गुरू साहिब जी
ने आज्ञा दी कि नित्य की भान्ति आसा दी वार का कीर्तन होगा। वह प्राण हथेली पर लेकर
घूमने वाला विचित्र व्यक्तियों का जत्था सरसा नदी के किनारे भक्ति रस में डूब गया। बरसती गोलियों की छाया के नीचे किया गया यह कीर्तन श्री गुरू
गोबिन्द सिंघ जी के आत्मिक झुकाव और मूल्यों का भौतिक फर्जों पर प्रभावी होने का
सच्चा और ऊँचा नमूना प्रस्तुत करता है। गाय और कुरान की कसमें उठाकर गुरू साहिब जी को सही सलामत श्री
आनंदपुर साहिब जी से निकल जाने का भरोसा दिलाने वालों को जब पता लगा कि श्री गुरू
गोबिन्द सिंघ जी अपने परिवार और सिक्खों समेत सरसा नदी के किनारे पहुँच गए हैं तो
वे सारे इकरार और कसमें भूल गए। एक तो श्री आनंदपुर शहर पर हल्ला बोला उसे बुरी तरह
लूटा और दूसरी और सिक्खों के पीछे सेना डाल दी। सरसा नदी पार करते-करते कई झड़पें
हुई, जिसमें कई सिक्ख मारे गए। कई नदी में फिसलकर गिर पड़े। पाँच सौ में से केवल
चालीस सिक्ख बचे जो गुरू साहिब के साथ रोपड़ के समीप चमकौर की गढ़ी में पहुँच गए। साथ
दो बड़े साहिबजादे भी थे। इस गढ़बढ़ी में गुरू साहिब जी के दो छोटे साहिबजादे माता
गुजरी जी सहित गुरू साहिब से बिछुड़ गए। माता सुन्दरी और माता साहिब कौर, भाई मनी
सिंघ जी के साथ दिल्ली की ओर चले गए। जिसे जिधर मार्ग मिला चल पड़ा। गुरू साहिब जी
ने अपनी माता और दोनों छोटे पुत्रों को एक सिक्ख को सौपते हुए आज्ञा दी कि यदि किसी
कारण वे बिछड़ जाएँ तो उन्हें दिल्ली पहुँचा दिया जाए। गड़बड़ में जब वे सचमुच गुरू जी
से बिछड़े तो उस सिक्ख ने समीप के अपने गाँव में उन्हें ठहराने का फैसला किया और सोचा
कि जब कुछ शान्ति हो जाएगी तो उन्हें दिल्ली भेज दिया जाएगा।