100. सचखण्ड गमन और जोती-जोत समाना
गुरू जी ने सिक्खों को एक विशेष तम्बू में चिता तैयार करने का आदेश दिया। जब चिता
तैयार हो गई तो स्वयँ नित्य की भान्ति अपना कमर-कसा सजाया। धनुष बाण कन्धे पर रखकर
घोड़े पर सवार हो गये। जैसे शिकार खेलने चले हों किन्तु उन्होंने समस्त सिक्खों को
अन्तिम बार वाहिगुरू जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फतह कहकर अन्तिम विदाई ली। फिर
तम्बू की तरफ चल पड़े। जहाँ उन्होंने अपने लिए चिता सजवाई हुई थी। तम्बु के अन्दर
किसी को आने की आज्ञा नहीं दी। वहाँ घोड़े से उतरकर वे अन्दर गये। सिक्ख शोक और
आश्चर्य में डूबे हुए मूर्ति की भान्ति खड़े रहे। गुरू जी ने समाधि लगाई और चिता पर
लेट गये। इस तरह वे ज्योतिजोत समा गए। जाते हुए कह गये कि कोई उनकी यादगार न बनवाये।
उनकी याद का असली स्थान तो सिक्खों का दिल ही होना चाहिए। किन्तु खालसा उनके
परोपकारों को कैसे भूल सकता था। बाद में गुरू जी की याद में एक बड़ा चबूतरा बना दिया
गया।