65. विद्याता पर अटूट आस्था
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के दरबार में हर सिक्ख अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने के
लिए उपस्थित होना चाहता था। एक सिक्ख जगाधरी नगर के निकट एक गाँव में रहता था। वह
कुशल कारीगर (बढ़ई) था। उसकी आय निम्न स्तर की थी। तब भी उसमें से कुछ अँश बचत करके
सुरक्षित रखता और लगभग एक माह में एक बार अवश्य ही गुरू जी के दर्शनों को श्री
आनंदपुर साहिब पैदल यात्रा करते हुए पहुँच जाता। उसका यह नियम कई वर्षों से चलता आ
रहा था। किन्तु वह अन्य सिक्खों की तरह श्री आनंदपुर कभी भी रूकता नहीं था। उसको भय
बना रहता था कि यदि वह समय अनुसार घर वापिस न लौटा तो उसका परिवार धन के अभाव में
भूखा प्यासा मर जाएगा क्योंकि उसने घर पर एक दिन का ही खर्च दिया हुआ है। एक बार
गुरू साहिब जी ने उसे पास बुलाकर कहा: कि सिंघ जी आप इस बार हमारे पास कुछ दिन रहें।
ऐसी हमार इच्छा है। उत्तर में सिक्ख ने अपनी गुरू जी के समक्ष विवशता बताई: कि वह
केवल एक दिन का ही खर्च घर पर देकर आया है। यदि वह समय पर न लौटा तो परिवार को बहुत
कष्ट उठाना पड़ सकता है। गुरू साहिब जी ने उसे समझाते हुए कहा: कि आप चिन्ता न करें।
विद्याता किसी प्राणी को भी भूखा नहीं मारता वह सभी के रिजक का प्रबन्ध करता है। अतः
हमें उस पर पूर्ण आस्था होनी चाहिए किन्तु वह सिक्ख अपने दिल में विश्वास उत्पन्न
नहीं कर पाया। गुरू जी उसके दिल में बसे भ्रम को निकालना चाहते थे कि वह परिवार का
पोषण नहीं करता अपितु कोई ओर महाशक्ति परमात्मा है जो सभी को राजी-रोटी दे रहा है,
करता है। केवल हम तो एक साधन मात्र हैं। गुरू जी के दबाव डालने पर भी वह सिक्ख रूकने
को तैयार नहीं हुआ केवल एक ही बात कहता रहा कि मुझे कोई ओर सेवा बताऐं मैं करूँगा
किन्तु रूकना मेरे लिए असम्भव है।
इस पर गुरू जी ने युक्ति से काम करने के विचार से उसे कहा: ठीक
है, यदि तुम नही रूकना चाहते तो हमारा एक पत्र पीर बुद्धूशाह जी के सढौरे नगर में
देने का कष्ट करें। यह नगर आपके निकट ही पड़ता है। सिक्ख ने गुरू जी से बन्द पत्र
लिया और सढौरे नगर की ओर चल दिया। रास्ते में विचारने लगा कि मुझे कुछ कोस अधिक चलना
पड़ेगा क्योंकि यह नगर जगाधरी से कुछ हटकर पर्वतीय क्षेत्र की तहराई में है किन्तु
कोई बात नहीं। गुरू जी का सन्देश उचित स्थान पर पहुँच जाएगा। वह अगले दिन सढौरा पीर
जी के पास पहुँच गया और गुरू जी का पत्र उनको दिया। पीर बुद्धूशाह जी ने सिंघ जी से
कुशल क्षेम पूछी और उनका अतिथि सत्कार करने के लिए जलपान लाने का आदेश दिया। परन्तु
सिंघ जी ने आज्ञा मांगी और कहा: मुझे देर हो रही है मैं रूक नहीं सकता क्योंकि मैंने
अपनी रोजी रोटी के लिए घर जाकर मजदूरी करनी है। पीर जी ने कहा: वह तो ठीक है। इतनी
दूर से आप मेरे लिए सन्देश लाए हैं तो मैं आपको बिना सेवा किये जाने नहीं दूँगा।
विवशता के कारण सिंघ जी नाश्ता करने लगे। तब तक पीर जी ने पत्र खोलकर पढ़ लिया। उसमें
गुरू जी की तरफ से पीर जी को आदेश था कि इस सिक्ख को छः माह तक अपने पास अतिथि रूप
में रखना है, इनकों घर जाने नहीं देना। यह प्रसन्नतापूर्वक रहें तो ठीक नहीं तो
बलपूर्वक रखना है और इनकी सेवा में कोई कोर कसर नहीं रखनी। नाश्ता करने के उपरान्त
सिंघ जी ने आज्ञा मांगी तो उनको गुरू जी का आदेश सुना दिया गया। और कहा: अब आप की
इच्छा है हमारे पास बलपूर्वक रहें अथवा स्वेच्छा से। गुरू जी का आदेश सुनकर सिंघ जी
स्तब्ध रह गये। किन्तु अब कोई चारा भी नहीं था। आखिर मन मार कर रहने लगे। धीरे-धीरे दिन कटने लगे। जब छः माह सम्पूर्ण हुए तो उनको पीर जी
ने घर जाने की आज्ञा दे दी। जब सिंघ जी गाँव में पहुँचे तो वहाँ उनकी झोपड़ी नहीं थी
वहाँ पर एक सुन्दर मकान बना हुआ था। वह दूर से विचारने लगे। मेरी स्त्री और बच्चे
भूखे मर गये होंगे या कहीं दूर भाग गये होंगे और मेरी झोपड़ी गिरा कर किसी धनी पुरूष
ने अपना सुन्दर मकान बना लिया है। सिंघ जी जैसे ही मकान के निकट पहुंचे अन्दर से
सुन्दर वस्त्रों में उनके बच्चे खेलते हुए बाहर आये और सिंघ जी को देखकर जोर-जोर से
चिल्लाने लगे मां, बापू आ गया, बापू आ गया। इतने में उनकी पत्नी उनको दिखाई दी जो
स्वच्छ सुन्दर वस्त्रों में सजी हुई थी। वह आते ही पति का हार्दिक स्वागत करने लगी
और उसने कुशल मँगल पूछा। सिंघ जी घर की कायाकल्प देखकर आश्चर्यचकित थे। उनकी
प्रश्नवाचक दुष्टि देखकर पत्नी ने बताया: आप जब दो तीन दिन की प्रतीक्षा करने के
बाद नहीं लौटे तो हमने सोचा आप गुरू जी के पास सेवा के कार्यों में व्यस्त हो गये
होंगे। अतः हम गाँव मे खेतिहर मजदूरी की तलाश में निकल पड़े। उस समय गाँव के मुखिया
का नया मकान बन रहा था। उनको मजदूरों की आवश्यकता थी। इसलिए हमें वहाँ मजदूरी मिल
गई। जब कुछ दिन काम करते व्यतीत हुए तो एक दिन एक स्थान की खुदाई करते समय एक गागर
हमें दबी हुई मिली, जिसमें स्वर्ण मुद्राएँ थीं। जब हमने यह बात मुखिया जी को बताई
तो वह कहने लगे: हम इस भूमि पर कई वर्षों से हल चला रहे हैं, हमें तो कुछ नहीं मिला।
यह गढ़ा हुआ धन तुम्हारे भाग्य का है। अतः तुम इसे ले जाओ। इस प्रकार हमने उस धन से
पुरानी झोपड़ी के स्थान पर नया सुन्दर मकान बनवा लिया है और बच्चों को जीवन निर्वाह
की हर सुख सुविधाएँ उपलब्ध हो गई हैं। अब सिंघ जी को गुरू जी की याद आई और वह उनका
धन्यवाद करने श्री आनंदपुर साहिब जी पहुँचा। गुरू जी ने अपने प्यारे सिक्ख को देखते
ही पूछा: क्या बात है ? सिंघ जी कई माह बाद दिखाई दे रहे हो। वह सिक्ख गुरू चरणों
मे लेट गया और कहने लगा: गुरू जी ! मैं बहुत भूल में था। आपने मेरी आँखों के आगे से
मिथ्या अभिमान का मायाजाल हटा दिया है कि मैं बच्चों का पालन पोषण करता हूं। वास्तव
में तो यह कार्य विधाता स्वयँ ही कर रहे हैं हम तो केवल निमितमात्र ही हैं।