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64. चरित्र निर्माण पर विशेष बल

श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी एक दिन अपने दरबार में दूर-दूर से आने वाली संगतों का स्वागत कर रहे थे कि एक सिक्ख ने उन्हें सूचना दी कि हमारे जवानों के हाथ में शत्रु पक्ष की कुछ स्त्रियाँ लग गई हैं। कृप्या आदेश दें कि उनके साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाए। यह सुनते ही गुरू जी ने उन स्त्रियों को दरबार में बुलाया और उनको सम्मानित करके कहा– पुत्रियों आप चिन्ता न करें जल्दी ही सभी को उनके घरों में बा-इज्जत पहुँचा दिया जाएगा ओर ऐसा ही किया गया। तदपश्चात उन जवानों को बुलाकर गुरू जी ने गुरमत सिद्धान्त समझाते हुए कहा: हमने पँथ को बहुत ऊँचे आचरण वाला बनाना है। यदि हमारे सिक्ख भी वही त्रुटि करेंगे जो साधारण सैनिक करते हैं तो हम में और उनमें अन्तर कहाँ रह गया। हमने तुम्हें आचरण से संत और सिपाही बनाना है, जिससे सँसार भर में विजय प्राप्त करते हुए नाम कमाओगे। तुम बलिदान और त्याग का पर्यायवाची कहलाओगे। इस पर एक सिक्ख ने दबी जुबान में कहा: कि गुरू जी शत्रु तो हमारी स्त्रियों के साथ अभद्र व्यवहार करते हैं और उनका शील भँग कर देते हैं। यदि प्रतिशोध में ऐसा कुछ न किया गया तो उनको सबक कैसे मिलेगा ? उत्तर में गुरू जी ने कहा: अग्नि से अग्नि नहीं बुझती उसके लिए सदैव पानी का प्रयोग करना होता है। भाव हमें शत्रुता मिटाने के लिए अनैतिकता से नहीं नैतिकता से काम लेना होगा, दूसरे हम तुम्हें नरकगामी नहीं बनने देंगे। पर-स्त्रीगामी पूरे समाज के पतन का कारण बनता है। इसलिए हमने आचार सँहिता से खालसे को सर्तक किया है कि वह पर-नारीगामी नहीं होगा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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