63. दीप कौर
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के दरबार में माझा क्षेत्र की संगत ने प्रार्थना की, हे
गुरू जी ! माई दीप कौर ने आपका अमृत छका है। जब हम तलवन के कुँए पर पानी पी रहे थे
तो यह थोड़ी दूर आगे निकल गई। इस अकेला देखकर चार तुर्कों ने उसे घेर लिया, इसने अपना
सोने का कँगन उतारकर फैंका। जब एक तुरक कँगन को उठाने लगा, तो इसने तलवार खींचकर उस
पर वार किया। वह घायल होकर गिर पड़ा। शेष तुरक घबराकर शस्त्र सम्भालने लगे तो इसने
निर्भय होकर ऐसी तलवार मारी कि एक-एक करके दो को गिरा दिया। चौथे को घायल करके उसके
ऊपर चढ़कर बैठ गई और तलवार छाती में मार ही रही थी कि इतने में हम लोग पहुँच गए। चारों
पापी मर चुके थे। हम शीघ्रता से दीप कौर को साथ लेकर रास्ता बदलकर यहाँ आ पहुँचे
हैं। अब हमारे कई साथी यह वहम करते हैं कि दीप कौर ने हत्या की है ओर यह तुरक से
छूकर भ्रष्ट हो गई है। सतगुरू जी ने हँसकर कहा: इसने तो अपने धर्म की तथा अपने
प्राणों की रक्षा की है। यह शूरवीर सिंघनी पँथ की पुत्री है। यह भ्रष्ट नहीं हुई।
अछूत लोग इसके चरणों को छुकर पवित्र होंगे। इसका नाम वीरों की श्रेणी में रहेगा और
यह पवित्र-पावन कहलाएगी। तुम सब अमृत छको, ताकि तुम्हारे भ्रम-भय दूर हों और शेर
पुत्र बन जाओ। उसी दिन सारी संगत ने अमृतपान किया।