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60. शेर की खाल में गधा

एक दिन श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी का दरबार सजा हुआ था। गुरू जी अपने सिँहासन पर बैठे हुए थे। कीर्तनी जत्थे मधुर स्वर में गुरूबाणी का गायन करके हटे ही थे के तभी दस पन्द्रह सिक्खों का एक टोला बाहर दरबार में पेश हुआ। उनके पीछे बच्चे, जवान और अन्य लोग ऊँचे स्वर में हँसते हुए तथा मजाक करते आ रहे थे। इन सिक्खों के पास एक गधा था, जिसे वे दरबार के बाहर बाँधकर आये थे। आने वाले एक सिक्ख ने अपने कन्धे पर शेर की सुन्दर खाल लटकाई हुई थी तथा उस खाल का कुछ भाग हाथ से पकड़ा हुआ था। जब सभी सिक्खो ने गुरू जी को शीश झुकाकर प्रणाम किया तो गुरू जी ने इस विचित्र शोरगुल का कारण पुछा। उन्होंने लोटपोट होते हुए वह सारा वृतान्त सुनाया। इस घटनाक्रम को सारी संगत ने बड़े घ्यानपूर्वक सुना। उस सिक्ख ने बताया, हजूर ! पिछले तीन-चार दिनों से नगर के पश्चिम की और से निकलने वाले लोग, एक शेर को नगर सीमा के पास खेतों के उस ओर वन के निकट घुमते हुए देख रहे थे। उस तरफ से आने वाले लोग काफी सर्तकता से आवागमन कर रहे थे। इक्के-दुक्के यात्री तो शेर को दूर से ही देखकर भय के मारे नगर की ओर भागकर वापिस चले आते थे। यह चर्चा समस्त नगर में भय का कारण बनी हुई थी और आपको इसकी सूचना दी गई थी। इस पर गुरू जी की हल्की-हल्की मुस्कुराहट से सारी संगत पर दृष्टि डाल रहे थे। उस सिक्ख ने वार्ता आगे जारी रखते हुए कहा– खोदा पहाड़ निकला चूहा ! आज सुबह नगर का कुम्हार कुछ गधे लेकर चिकनी मिटटी लेने नगर के बाहर जा रहा था। इन गधों को देखकर उस शेर ने रेंकना शुरू कर दिया। उस शेर को रेंकते देखकर उस कुम्हार को वास्तविकता समझने में देर नहीं लगी। उसने उस शेर को जा पकड़ा और जाँचा। किसी ने बड़ी सावधानी से, इस गधे के ऊपर शेर की खाल मड़ दी थी। जिस कारण दूर से इसका बिल्कुल भी पता नहीं लग रहा था। कुम्हार ने इस शेरनुमा गधे की शेर वाली खाल उतार ली जो कि हम आपके पास लेकर हाजिर हूए हैं और वह गधा अब हम बाहर बाँध आये हैं। सारी संगत हँसी के मारे लोटपोट हो रही थी। सभी लोग इस हास्यापद घटना को सुनकर हँसी न रोक सके। बाहर से आया हुआ सिक्ख सबको तथाकथित शेर की खाल दिखा रहा था।

गुरू साहिब जी ने सभी संगतों को सम्बोधित करते हुए कहा: कि आप सब इस शेरनुमा गधे की असलियत प्रकट होने पर हँस रहे हैं, परन्तु यह बताओ कि आप में से कौन उस शेरनुमा गधे का भाई है ? छिपाने की कोशिश न करो। समस्त संगत में कोई भी ऐसा न निकला जो शेरनुमा गधे के साथ संबंध प्रकट करता। गुरू साहिब जी ने कहा: कि सिक्खों में से बहुत से ऐसे व्यक्ति हैं, जो दृढ़ता तथा विश्वास की कमी के कारण समय-समय विचलित होते रहते हैं तथा डगमगा कर भटक जाते हैं। उन्होंने केवल देखादेखी सिक्खों वाला स्वरूप अवश्य ही धारण कर लिया है परन्तु अन्दर से आचरण सिक्खों वाले नहीं। केवल वेशभूषा सिक्खों वाली बना लेने से धर्म का वास्तविक लाभ प्राप्त नही होता। जिन सिक्खों ने अपने मन को समर्पित नहीं किया, उनकी बाहरी दिखावट केवल धर्म का ढकोसला बनकर रह जाती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहँकार पर काबू पाकर, अन्तःकरण की शुद्धि, त्याग, मधुरभाषी, परोपकारी जैसे ऊँचे आदर्शों पर आचरण करने पर बाहरी रहत की शोभा बढ़ती है। बाहरी रहत अर्थात पाँच कँकारी वर्दी धारण करने पर व्यक्ति सिंघों जैसा मालूम पड़ता है। यदि अन्दर जीवन चरित्र में परिवर्तन न हुआ, निर्भयता तथा शौर्य गुण उत्पन्न न हुए तो व्यक्ति उस गधे की तरह है जिस पर शेर की खाल पड़ी हुई है। वास्तव में दिखावे में लोग धर्म के अपमान का कारण बनते हैं और उस गधे की तरह अपमानित होकर अपना शेरों वाला स्वरूप खो बैठते हैं। अतः सदाचारी गुणों वाला जीवन की सिक्खी है अथवा शेरों वाला स्वरूप है। गुरू जी ने स्पष्ट किया कि उन्होंने ही गधे पर शेर की खाल मड़वाकर यह कौतुक रचा था, जिससे जनसाधारण को दृष्टान्त देकर गुरमति दृढ़ करवाई जा सके।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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