59. आपे गुरू चेला
हैरानी वाली घटना तब हुर्ह थी जब गुरू जी ने चेलों से अमृतपान कर रहे थे। दुनियाँ
के इतिहास में अभी तक कोई ऐसी घटना नहीं हुई जिसमें किसी गुरू अथवा पीर-पैगम्बर ने
अपने मतावलम्बियों को अपने बराबर या अपने से ऊँचा दर्जा दिया हो। यह रूहानी
जम्हूरियत की एक अनोखी मिसाल पेश हो रही थी। इसलिए तो कहा गया है: वाहु वाहु
गोबिन्द सिंघ आपे गुरू चेला ।। चेले तो सदा गुरू जी प्रशँसा करते आए हैं, पर यह गुरू
गोबिन्द सिंघ जी हैं जिन्होंने चेलों को यह बडप्पन दिया और लिखा: इनही की कृपा के
सजे हम हैं, नहि मो से गरीब करोर परे ।। यह अद्धितीय प्रजातँत्र, यह गरीब निवाजी और
यह अथाह नम्रता– "नहिं मोसे गरीब करोर परे", शाहद ही दुनियाँ में किसी के हिस्से इस
हद तक आई हो, जितनी कि गुरू गोबिन्द सिंघ जी के। परन्तु ध्यान रहे, पाँच प्यारों को
जीवन और मृत्यु की कड़ी परीक्षा लेकर चयन किया गया था, मत पत्र डालकर चुनाव नहीं।
गुरू साहिब जी ओर से चेलों द्वारा अमृत पीने की बात सुनकर सिक्ख संगतों को हैरानी
तो होनी ही थी, चेले भी घबरा गये। कहने लगे– सच्चे पातशाह, यह पाप हमसे न करवायें।
आप ही तो अमृत के देने वाले हैं। हम बेचारों की क्या हैसियत है कि आपके सामने
गुस्ताखी करें और आपको आपकी दात में से अमृत छकायें। गुरू गुरू है, चेला आखिर चेला।
हम आपकी बराबरी भला कैसे कर सकते हैं ? फिर बराबरी ही नहीं, आप तो हमसे दात माँगकर
हमें अपने से भी ऊँचा दर्जा दे रहे हैं, नहीं जी यह पाप हमसे नहीं होगा। आप हमारी
दीन-दुनियां के मालिक हैं। हमने अपना लोक-परलोक सुधारने की डोर आपके हाथ पकड़ाई है।
आपको भला अमृत किस प्रकार छका सकते हैं ? यह सुनकर गुरू जी ने बहुत ही धैर्य और
सुरूर में आकर कहा– आज से मैं एक नये पँथ की नींव रखता हूँ, जिसमें न कोई छोटा है न
बड़ा, न नीच है न ऊँच, सभी बराबर होगें। इस बात को सिद्ध करने के लिए आप लोगों से
मैं स्वयँ अमृतपान करूँगा। इस सामाजिक बराबरी का आरम्भ स्वयँ मुझ से ही होगा।
अब गुरू के पाँच प्यारों के पास इन्कार करने का कोई बहाना नहीं
था। उन्होंने गुरू जी को भी उसी प्रकार अमृत छकाया, जिस प्रकार स्वयँ छका था। यह
दृश्य देखकर सारे वातावरण में जोश और खुशी की बाढ़ सी आ गई। वातावरण सत श्री अकाल के
जयकारें से गूँज उठा, संगतें झूम उठीं और बोल उठीं: घन्य श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी
आपे गुरू चेला। अमृत सँचार दो हफ्ते जारी रहा और अमृत पान करने वालों की सँख्या बीस
हजार से अस्सी हजार हो गई। अमृत देवताओं का भोजन है। इसलिए जिस व्यक्ति ने इसे छका,
इन्सान न रहा, भटटी में तपे हुए कँचन की भान्ति खालिस अथवा शुद्ध हो गया। श्री गुरू
गोबिन्द सिंघ जी ने अपने पाँच प्यारों को खालसा की उपाधि दी और श्री गुरू नानक देव
साहिब जी का सिक्ख खालसा पँथ का सदस्य बन गया। इसके पश्चात गुरू जी ने खालसे पँथ को
सम्बोधित करते हुए कहा– आज से आप अपने आपको जाति-पाति से मुक्त मानो। आप लोगों को
हिन्दुओं अथवा मुस्लमानों में से किसी का भी तरीका नहीं अपनाना, किसी भी प्रकार का
वहम, अँधविश्वास अथवा भ्रम में नहीं पड़ना। केवल एकमात्र उस परमात्मा में ही भरोसा
रखना है। गुरू जी ने कहा कि खालसा पँथ में महिलाओं को वही अधिकार प्राप्त हैं जो कि
पुरूषों को। महिलाएँ पुरूषों के बराबर समझी जाएँगी। लड़की को मारने वाले के साथ खालसा
सामाजिक व्यवहार नहीं रखेगा।
1. गुरू के प्रति पूरी श्रद्धा के साथ पुराने ऋषियों की भान्ति
खालसा केस रखेगा।
2. केसों को स्वच्छ रखने के लिए कँघा रखन की आज्ञा है।
3. परमात्मा के विश्व-व्यापी होने का चिन्ह आपके हाथ में एक लोहे का कड़ा होगा।
4. एक कच्छा होगा, जो कि आपके सँयम की निशानी है।
5. सुरक्षा के लिए कृपाण रखने का हुक्म है।
एक-दूसरे से मिलने पर वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतेह
कहकर जयकारा बुलायेंगे। हिन्दु और मुस्लमान के मध्य आप एक पुल का काम देंगे। बिना
जाति, रँग, वेश और मजहब का ख्याल किए, आप गरीबों और दुखियों की सेवा करेंगे। यह
विचार इतने क्रान्तिकारी हैं कि आज के प्रगतिशील वैज्ञानिक युग में भी कई पश्चिमी
देश भी इन्हें अपनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। अपनी कृति खालसा पँथ पर गुरू साहिब जी
प्रसन्न हो उठे। प्रसन्न भी क्यों न होते, आखिर 230 वर्षों के परिश्रम का परिणाम जो
था। प्यार में आकर आपने खालसा की उपमा इस प्रकार की:
खालसा मेरो रूप है खास ।। खालसे महि हौं करौं निवास ।।
खालसा मेरो मुख है अंगा ।। खालसे के हउं सद सद संगा ।।
खालसा मेरो इष्ट सुहिरद ।। खालसा मेरो कहीअत बिरद ।।
खालसा मेरो पछ अर पादा ।। खालसा मेरो मुख अहिलादा ।।
खालसा मेरो मितर सखाई ।। खालसा मात पिता सुखदाई ।।
खालसा मेरी सोभा लीला ।। खालसा बंध सखा सद डीला ।।
खालसा मेरी जात अर पत ।। खालसा सौ मा की उतपत ।।
खालसा मेरो भवन भंडारा ।। खालसा कर मेरो सतिकारा ।।
खालसा मेरो सजन परवारा ।। खालसा मेरो करत उधारा ।।
खालसा मेरो पिंड परान ।। खालसा मेरी जान की जान ।।
मान महत मेरी खालसा सही ।। खालसा मेरो सवारथ सही ।।
खालसा मेरो करे निरवाह ।। खालसा मेरो देह अर साह ।।
खालसा मेरो धरम अर करम ।। खालसा मेरो भेद निज मरम ।।
खालसा मेरो सतिगुर पूरा ।। खालसा मेरो सजन सूरा ।।
खालसा मेरो बुध अर गिआन ।। खालसे का हउ धरों धिआन ।।
उपमा खालसे जात न कही ।। जिहवा ऐक पर नहि लही ।।
सेस रसन सारद की बुध ।। तदप उपमा बरनत सुध ।।
या मैं रंच न मिथिआ भाखी ।। पारब्रहम गुरू नानक साखी ।।
रोम रोम जे रसना पाऊ ।। तदप खालसा जस तहि गाउं ।।
हउ खालसे को खालसा मेरो ।। ओत पोत सागर बूंदेरो ।।
(सरब लौह ग्रन्थ में से)
एक विशेष प्रकार की प्रवृति बनाने के लिए ही सिक्ख को प्रतिदिन
नितनेम के पाठ करने की हिदायत दी गई और श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने कहा:
रहिणी रहै सोई सिक्ख मेरा, उह ठाकुर मैं उसक चेरा ।।
रहित बिना नहि सिक्ख कहावै ।।
रहित बिना दर चोटा खावे ।।
रहित बिना सुख कबहू न लहै ।।
तां ते रहित सु दृढ़कर रहै ।।
इसके अतिरिक्त श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने सर्तक किया कि यदि
कोई व्यक्ति सिक्खी वेशभूषा तो बनाता है किन्तु विधिवत गुरू दीक्षा नहीं लेता
अर्थात पाँच कंकारों के समक्ष उपस्थित होकर अमृतपान नहीं करता तो मेरी उसके लिए
प्रताड़ना है:
धरे केश पाहुल बिना भेखी मूढ़ा सिख ।।
मेरा दरशन नाहि तहि पापी तिआगे भिख ।।
इस प्रकार हुक्म हुआ कि जब तक खालसा पँथ न्यारा रहेगा, हित पर
चलेगा, तब तक वह चढ़दी कला अर्थात बुलँदियों में रहेगा किन्तु जब वह अनुशासनहीन हो
जायेगा तो उसका पतन निश्चित समझो और फरमान जारी किया:
जब लग खालसा रहे न्यारा तब लग तेज दीओ में सारा ।।
जब इह करै बिपरन की रीत मैं न करो इनकी प्रतीत ।।
गुरूसिक्ख के लिए पाँच कँकारों का धारणकर्ता होना भी जरूरी है।
पाँच कँकारों के विषय में निर्देश इस प्रकार हैं:
नशनि सिखी ई पंज हरीफ काफ ।।
हरगिज न बाशद ई पंज मुआफ ।।
कड़ा कारदो काछ कंघा बिदान ।।
बिना केस हेच अस्त जुमला निशान ।। (भाई नन्दलाल जी गोया)