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58. खालसा पँथ की सृजना

श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को अन्याय का सामना करने के लिए शक्ति की आवश्यकता थी। वे भक्ति और आध्यात्मवादी की इस गुरू-परम्परा को शक्ति और शौर्य का बाणा पहनाकर, उसे विश्व के समक्ष लाने की रूपरेखा तैयार कर रहे थे। सन 1699 की बैसाखी के समय गुरू जी ने एक विशेष समारोह का आयोजन किया। सिक्खों को भारी सँख्या में श्री आनंदपुर साहिब जी में पहुँचने के निमँत्रण पहले से ही भेज दिये गये थे और साथ ही उन्हें शस्त्रबद्ध होकर आने को कहा गया। सन्देश पाते ही देश के विभिन्न भागों से सिक्ख गुरू जी के दर्शनों के लिए काफिले बनाकर बड़ी सँख्या में उपस्थित हुए। बैखाखी को गुरू जी ने एक विशेष स्थल में मुख्य समारोह का प्रारम्भ प्रातःकाल आसा की वार कीर्तन से किया। गुरू शब्द, गुरू उपदेशों पर विचार हुआ। दीवान की समाप्ति के समय गुरू जी मँच पर हाथ में नँगी तलवार लिए हुए पधारे और उन्होंने वीर रस में प्रवचन करते हुए कहा– मुगलों के अत्याचार निरन्तर बढते जा रहे हैं। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं रही। अतः हमें अकालपुरूख परमात्मा की आज्ञा हुई है कि अत्याचार पीड़ित धर्म की रक्षा हेतु ऐसे वीर योद्धाओं की आवश्यकता है। जो भी अपने प्राणों की आहुति देकर दुष्टों का दमन करना चाहते हैं वह अपना शीश मेरी इस रणचण्डी (तलवार) को भेंट करें। तभी उन्होंने अपनी म्यान में से कृपाण (श्री साहिब) निकाली और ललकारते हुए सिंह गर्जना में कहा– है कोई मेरा प्यारा सिक्ख जो आज मेरी इस तलवार की प्यास अपने रक्त से बुझा सके ? इस प्रश्न को सुनते ही सभा में सन्नाटा छा गया। परन्तु गुरू जी के दोबारा चुनौती देने पर एक निष्ठावान व्यक्ति हाथ जोड़कर उठा और बोला– मैं हाजिर हूं, गुरू जी ! यह लाहौर निवासी दयाराम था। वह कहने लगा– मेरी अवज्ञा पर क्षमा कर दें, मैंने देर कर दी। मेरा सिर आपकी ही अमानत है, मैं आपको यह सिर भेंट में देकर अपना जन्म सफल करना चाहता हूं, कृप्या इस को स्वीकार करें। गुरू जी उसको एक विशेष तम्बू में ले गये।

कुछ ही क्षणों में वहां से खून से सनी हुई तलवार लिए हुए गुरू जी लौट आए तथा पुनः अपने शिष्यों या सिक्खों को ललकारा। यह एक नये प्रकार का दृश्य था, जो सिक्ख संगत को प्रथम बार दृष्टिगोचर हुआ। अतः समस्त सभा में भय की लहर दौड़ गई। वे लोग गुरू जी की कला से परिचित नहीं थे। विश्वास-अविश्वास की मन ही मन में लड़ाई लड़ने लगे। इस प्रकार वे दुविधा में श्रद्धा भक्ति खो बैठे। इनमे से कई तो केवल मसँद प्रवृति के थे, जो जल्दी ही मानसिक सन्तुलन भी खो बैठे ओर लगे कानाफूसी करने कि पता नहीं आज गुरू जी का क्या हो गया है ? सिक्खों की ही हत्या करने लगे हैं। इनमें से कुछ एकत्र होकर माता गुजरी के पास शिकायत करने जा पहुँचे और कहने लगे पता नहीं गुरू जी को क्या हो गया है ! वह अपने सिक्खों को मौत के घाट उतार रहे हैं। यदि इसी प्रकार चलता रहा तो सिक्खी समाप्त होते देर नहीं लगेगी। यह सुनकर माता जी ने उन्हें साँत्वना दी अपनी छोटी बहु साहिब (कौर) जी को गुरू जी के दरबार की सुध लेने भेजा। माता साहिब (कौर) जी ने घर से चलते समय बताशे पल्लू में बाँध लिये और दर्शनों को चल पड़ीं।

उधर दूसरी बार ललकारने पर श्रद्धावान सिक्खों में से दिल्ली निवासी धर्मदास जाट उठा। गुरू जी उसे भी उसी प्रकार तम्बू में ले गये। फिर जल्दी ही खून से सनी तलवार लेकर मँच पर आ गये और वही प्रश्न फिर दोहराया कि मुझे एक सिर की और आवश्यकता है। इस बार भाई मुहकमचंद छींबा गुजरात द्वारका निवासी उठा और उसने स्वयँ को गुरू जी के समक्ष प्रस्तुत किया और कहा– गुरू जी ! मेरा सिर हाजिर है। गुरू जी उसे भी तुरन्त तम्बू में ले गये। कुछ क्षणों बाद फिर लौटकर मँच पर आ गये और फिर से वही प्रश्न दोहराया कि मुझे एक सिर की ओर आवश्यकता है। इस बार खून से सनी तलवार देखकर बहुतों के दिल दहल गये किन्तु उसी पल भाई हिम्मत लाँगरी निवासी जगन्नाथपुरी उड़ीसा उठा और कहने लगा कि गुरू जी मेरा सिर हाजिर है। ठीक इसी प्रकार गुरू जी पाँचवी बार मँच पर आये और वही प्रश्न संगत के सामने रखा कि मुझे एक सिर और चाहिए, इस बार बिदर-करनाट का निवासी साहिब चँद नाई उठा और उसने विनती की कि मेरा सिर स्वीकार करें। उसे भी गुरू जी उसी प्रकार खींचकर तम्बू में ले गये। अब गुरू जी के पास पाँच निर्भीक आत्मबलिदानी सिक्ख थे जो कि कड़ी परीक्षा में उतीर्ण हुए थे। इस कौतुक के बाद इन पाँचों को एक जैसे नीले वस्त्र, केसरी दस्तार, कछहरे (एक अरेबदार बना हुआ अन्डर वियर नाड़े वाला) और लघु कृपाण पहनने को दिये और उन्होंने स्वयँ भी इसी प्रकार का परिधान पहना। तब इन पाँचों को अपने साथ पण्डाल में लेकर आये। उस समय इन पाँचों को आर्कषण तथा सुन्दर स्वरूप में देखकर संगत आश्चर्य में पड़ गई क्योंकि इनके चेहरे से विजयी होने का नूर झलक रहा था। तभी गुरू जी ने भाई चउपति राये को आदेश दिया कि चरणामृत वाले मटके को पानी सहित सतलुज में प्रवाहित कर दें और उसके स्थान पर सरब लोह के बाटे (बड़ा लोहे का पात्र) में स्वच्छ जल भरकर लाएँ।

ऐसा ही किया गया। गुरू जी ने इस लोह पात्र को पत्थर की कुटनी पर स्थिर करके उसमें खण्डा (दोधारी तलवार) वीर आसन में बैठकर घुमाना प्रारम्भ कर दिया तभी आप की सुपत्नी साहिब (कौर) जी दर्शनों को उपस्थित हुईं। उन्होंने बताशे भेंट किये, जिसे गुरू जी ने उसी समय लोहपात्र के जल में मिला दिये और गुरूबाणी उच्चारण करते हुए खण्डा चलाने लगे। सर्वप्रथम उन्होंने जपुजी साहिब का पाठ किया तदपश्चात जापु साहिब, सवैँया साहिब, चौपाई साहिब तथा आनंद साहिब जी का पाठ किया, (जिसे पाँच वाणियों का पाठ कहा जाता है और इसे एक सिक्ख को रोज करना चाहिए इसमें ध्यान रहे कि आनंद साहिब का पाठ पुरा करना चाहिए, छै (6) पउड़िया नहीं)। पाठ की समाप्ति पर अरदास की और जयकार के बाद खण्डे का अमृत विरतण करने की मर्यादा प्रारम्भ की। सर्वप्रथम गुरू जी ने तैयार अमृत (पाहुल) के छींटे उनकी आखों, केशों और शरीर पर मारते हुए आज्ञा दी कि वे सभी बारी-बारी बाटे (लोह पात्र) में से अमृत पान करें (पीयें)। यही किया गया। यही प्रक्रिया पुनः वापिस दोहराई यानि उसी बर्तन से दोबारा अमृतपान करने को कहा गया यानि कि एक दूसरे का झुठा, जिससे ऊँच नीच का भ्रम सदैव के लिए समाप्त हो जाये और भातृत्व की भावना उत्पन्न हो जाए। गुरू जी ने उसी समय पाँचों सिक्खों के नामों के साथ सिंघ शब्द लगा दिया जिसका अर्थ है बब्बर शेर। इस प्रकार उनके नये नामकरण किये गये। इन्हें पाँच प्यारों की उपाधि से सम्मानित किया गया और उनको विशेष उपदेश दिया: आज से तुम्हारा पहला जन्म, जाति, कुल, धर्म सभी समाप्त हो गये हैं। आज से आप सभी गुरू वाले हो गये हैं अतः आज से तुम मेरे जन्में पुत्र हो, तुम्हारी माता साहिब कौर, निवासी केशगढ़, आनंदपुर साहिब हैं और तुम्हारी जाति खालसा है क्योंकि सिंघों की केवल एक ही जाति होती है। अब आप लोगो की वेशभूषा पाँच कँकारी वर्दी होगी:

1. केश (केसकी)
2. कँघा (लकड़ी का)
3. कड़ा (लोहे का)
4. कछहरा (अरेबदार बना हुआ नाड़े वाला अण्डर वियर)
5. कृपाण (श्री साहिब)

गुरू जी ने कहा: आप नित्यकर्म में अमृत वेले (ब्रहम समय) में जागर परमात्मा वाहिगुरू का नाम सिमरन करेंगे। उपजीविका के लिए धर्म की किरत करेंगे यानि कि धोखाघड़ी नहीं और अर्जित धन बाँटकर सेवन करोगे। इसके अतिरिक्त चार कुरेहताँ यह रहित मर्यादा दिलवाईं–

1. केश नहीं काटना (पूरे शरीर में से कहीं के नहीं)।
2. मास नहीं खाना (कुछ ऐसे सिक्ख जिन्हें मास खाना होता है, वह कहते हैं कि गुरू जी ने बोला था कि कुठा नहीं खाना या जीव को एक ही झटके से काटकर खा सकते हो, ये गलत है। इन लोगों की वजह से ही सच्चे गुरू के सिक्खों का नाम बदनाम होता है, इसलिए ये लोग सिक्ख कहलाने लायक नहीं हैं, ये शेर की खाल में भेड़िये हैं। अगर आपका कोई दोस्त सिक्ख है और वह मास खाता है, शराब पीता है या बाल काटता है, तो आप यह समझ लेना कि आपने एक सिक्ख यानि की एक शेर से दोस्ती नहीं की, आपने शेर की खाल में छिपे हुए एक भेड़िये से दोस्ती की है)।

3. परस्त्री या परपुरूष का गमन (भोगना) न करना। (अगर पुरूष ने अमुतपान किया है तो वह शारिरीक संबंध केवल अपनी पत्नी के साथ ही रख सकता है, किसी पर स्त्री के साथ नहीं। अगर वह कुवाराँ है, तो प्रत्येक लड़की को, स्त्री को अपनी माँ बहिन समझे और बिना शादी के संबंध तो बिल्कुल नहीं। यही बात एक अमृतपान की हुई लड़की पर भी लागू होती है)।

4. तम्बाकू को सेवन नहीं करना और किसी भी प्रकार के नशे का सेवन नहीं करना।

गुरू जी ने स्पष्ट किया कि इन चारों नियमों में से किसी एक के भी भँग होने पर व्यक्ति पतित समझा जाएगा और वह निष्कासित माना जायेगा और यदि वह पुनः सिक्खी में प्रवेश करना चाहता है तो उसे पाँच प्यारों के समक्ष उपस्थित होकर दण्ड लगवाकर पुनः अमृतधारण करना होगा। गुरू जी ने उन्हें समझाते हुए यह कहाः आप पाँच परमेश्वर रूप में उनके गुरू हैं, इसलिए वे भी उनके सिक्ख या शिष्य हैं। उन पांचों ने तब कहाः ठीक है ! परन्तु गुरू दक्षिणा उन्होंने तो अपने सिर भेंट में दिये थे। अब आप क्या देंगे। तब गुरू गोबिन्द राय जी ने कहाः अभी गुरू दक्षिणा उधार रही, किन्तु समय आने पर हम अपना समस्त परिवार गुरू दक्षिणा के बदले में न्यौछावर कर देंगे। उन पाँचों ने मिलकर तब श्री गुरू गोबिन्द राय जी के लिए भी उसी प्रणाली द्वारा अमृत तैयार किया और उनको भी अमृतपान कराया तथा उनका नामकरण किया, जिससे उनका नाम भी बदलकर श्री गुरू गोबिन्द राय जी से श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी हो गया। इसलिए इन्हें आपे गुरू चेला भी कहा जाता है।

अत्यन्त महत्वपूर्ण नोटः (श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने जब अमृतपान किया तभी उन्होंने अपने नाम में सिंघ लगाया, जबकि इससे पहले उनका नाम श्री गुरू गोबिन्द राय जी था। ठीक इसी प्रकार माता साहिब देवी जी ने जब अमृतपान किया तो उनका नाम माता साहिब कौर हुआ। किन्तु ध्यान देने वाली बात यह है कि आजकल के सिक्ख पुरूष और औरत दोनों ही बिना अमृतपान किये अपने नाम के साथ सिंघ और कौर लगाने लगे है, लगता है कि ये अपने आप को गुरू से भी बड़ा समझते हैं।) श्री गुरू गोन्दि सिंघ जी ने जब खालसा पँथ की स्थापना की तो उन्होंने उसे न्यारा बनाने के लिए कुछ विशेष आदेश दिया:

1. पूजा अकाल की अर्थात एक परमपिता परमेश्वर की पूजा यानि केवल परमात्मा का नाम जपना। यहाँ पर परमाता की पूजा से तात्पर्य है कि उसका नाम जपना। क्योंकि परमाप्ता का नाम जपना ही उसकी पूजा है।

2. परचा शब्द का अर्थात मार्गदर्शन श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी की बाणी का।

3. दीदार खालसे का अर्थात दर्शन दीदार साधसंगत के।

खालसा अकाल पुरख की फौज ।।
प्रगटियो खालसा परमातम की मौज ।।

गुरू साहिब जी ने एक नया नारा दियाः

हिन्दु कोउ तुरक कोउ राफजी इमाम साफी ।।
मानस की जात सभै एकै पहिचानबो ।।
गुरू जी ने सिक्खों को स्पष्ट कह दियाः
मैं हो परमपुरख को दासा ।। देखन आयो जगत तमासा ।।
जो हमको परमेसर उचरै हैं ।। ते सब नरक कुड महिं परहें ।।

गुरू जी ने कहा कि मै तो स्वयँ उस परमात्मा का दास हुँ और उसके आदेश अनुसार ही जगत का तमाशा देखने आया हूं और जो हमें परमेश्वर मानकर हमारी पूजा करेगा वह नर्क कुण्ड में जायेगा। पूजा केवल परमात्मा की होनी चाहिए यानि उसका नाम जपना चाहिए। यह स्पष्ट करना इसलिए भी आवश्यक था कि "भारत में प्रत्येक महापुरूष को परमेश्वर कहकर उसकी ही पूजा करने लग पड़ना एक प्राचीन बीमारी है" ओर इसी कारण पूजा-योग्य देवताओं की सँख्या भी इतनी पहुँच गई है, जितनी की पूजारियों की। इन देवी देवताओं की पूजा से समय और धन व्यर्थ ही नष्ट होते है और मुक्ति तो कभी मिल ही नहीं पाती और इन्सान 84 लाख योनियों में भटकता रहता है और दुखी होता रहता है। गुरू जी का एकमात्र उद्देश्य एक नया जीवन मार्ग दर्शाना था न कि अपनी पूजा करवानी। उनकी आज्ञानुसार पूजा केवल एक अकाल पुरूष यानि की परमात्मा की ही हो सकती है, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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